"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।"

क्या होता यदि भारत में डॉ भीम राव अम्बेडकर नहीं होते?

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क्या होता यदि भारत में डॉ. भीमराव आंबेडकर नहीं होते? इसका उत्तर जानने के लिए पाकिस्तान की कहानी देख सकते हैं। पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से, जिसे अब बांग्लादेश कहा जाता है, ने 1971 में विद्रोह कर अलग देश बना लिया। इसका कारण पाकिस्तान के संविधान में वह गहराई और संघीय ढांचा नहीं होना था। इसके विपरीत, भारत की कहानी देखें। एक अरब 25 करोड़ की आबादी वाला देश, जिसमें 29 राज्य और सात केंद्रशासित प्रदेश हैं, एक मजबूत संघीय ढांचे के साथ आगे बढ़ रहा है। जितना बहुभाषी, बहुधार्मिक और बहुजातीय भारत है, उतना दुनिया का कोई अन्य देश नहीं। अमेरिका में जरूर 50 राज्य हैं, लेकिन सभी अंग्रेजीभाषी हैं।

भारत की एकता और अखंडता को हमारे संविधान ने सुरक्षित रखा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा संविधान दुनिया में सबसे उत्कृष्ट है। भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. आंबेडकर की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि भारत की एकता और अखंडता कैसे बनी रहे। उन्हें इसका समाधान संघीय ढांचे में मिला। एक ऐसा संघीय ढांचा, जिसमें छोटे राज्य भी अपने को सुरक्षित महसूस कर सकें और बड़े राज्यों से भयभीत न हों। बाबा साहेब इस कार्य में सफल रहे।
डॉ. आंबेडकर ने भारत को एक श्रेष्ठ संविधान देने के लिए विश्व के कुछ श्रेष्ठ संविधानों का अध्ययन किया और अपनी विद्वता का इस्तेमाल कर एक ऐसा संविधान बनाया, जो कभी असफल नहीं हो सकता। कल्पना करें, अगर डॉ. आंबेडकर अंग्रेजी न जानते तो क्या होता? उच्च शिक्षा के लिए 1913 में वे न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय पहुंचे। वहाँ उन्होंने अपने सहपाठियों और प्रफेसरों को अपनी इंग्लिश से प्रभावित किया। उनके प्रफेसर्स, विशेषकर प्रोफेसर जॉन डिवे, जेम्स शॉटवेल और सेलिमेन, उनकी अंग्रेजी से हैरान थे।


आंबेडकर की सफलता में अंग्रेजी भाषा का महत्वपूर्ण योगदान था। इसलिए उन्होंने इंग्लिश को 'शेरनी का दूध' बताया और दलितों से इंग्लिश अपनाने का आह्वान किया। वे इंग्लिश को राष्ट्रीय लिंक लैंग्वेज बनाने की मांग करने वाले पहले नेता थे। भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने में संविधान के बाद सबसे बड़ी भूमिका इंग्लिश की और इंग्लिश बोलने वालों की है। दलित समाज पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखता है। किसी भी अमेरिकी विश्वविद्यालय में जाइए, वहाँ आपको दलित छात्र मिल जाएंगे। कई दलित अधिकारी अपनी जीवनभर की कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च कर अपने बच्चों की पढ़ाई विदेशों में करा रहे हैं।

हालांकि, क्या जाट, गुर्जर, पटेल और कापू जैसी जातियों में भी इंग्लिश को वही महत्व प्राप्त है? ये जातियाँ आरक्षण की मांग कर रही हैं। उत्तर भारत के जाट और गुर्जर, गुजरात के पटेल और आंध्र प्रदेश के कापू मूलतः शूद्र हैं और इनकी सामाजिक चेतना और व्यवसाय अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के समान है। इन जातियों का भी कभी शोषण हुआ है, लेकिन इंग्लिश के प्रति इनका रुख अलग है।

ओबीसी समाज के बड़े नेता राम मनोहर लोहिया ने 'अंग्रेजी हटाओ' आंदोलन चलाया था, जिससे ओबीसी परिवारों में इंग्लिश के प्रति अनादर पैदा हुआ। इसका नुकसान यह समाज आज तक भुगत रहा है।
आज के वैश्विक दौर में, इंग्लिश एक आवश्यक भाषा है। व्यापार, मैन्युफैक्चरिंग, शोध और प्रशासन की भाषा इंग्लिश ही है। एक अध्ययन से पता चलता है कि 2050 तक इंग्लिश न जानने वाला व्यक्ति गूंगा-बहरा जैसा हो जाएगा। ऐसी स्थिति में इंग्लिश जाने बिना जाट या ओबीसी समाज आरक्षण का क्या उपयोग कर पाएगा?
एक बेहतर भारत के लिए जरूरी है कि सभी भारतीय इंग्लिश पढ़ने-पढ़ाने का संकल्प लें। विशेष रूप से, आरक्षण का लाभ ले रही जातियों को इंग्लिश को वैसे ही अपनाना चाहिए जैसे दलित जातियां अपना रही हैं। जो जातियाँ इंग्लिश को नहीं अपना रही हैं, उन्हें आरक्षण छोड़ देना चाहिए। जो जातियाँ आरक्षण की मांग कर रही हैं, लेकिन इंग्लिश अपनाने की ओर नहीं बढ़ रहीं, उन्हें अपनी मांग छोड़ देनी चाहिए। जो भी डॉ. आंबेडकर की जुबान अपनाएगा, वह आंबेडकर की तरह ही चमकता रहेगा।

"शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो" – डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का मूल संदेश

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 दिनांक 9 मार्च 1924, मुंबई के दामोदर हॉल में शाम 4 बजे एक ऐतिहासिक सभा का आयोजन हुआ। इस सभा में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने एक संगठन, "बहिष्कृत हितकारिणी सभा" की स्थापना का प्रस्ताव रखा, जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। यह केवल एक संगठन की स्थापना नहीं थी, बल्कि यह उस सामाजिक आंदोलन का जन्म था, जिसने सदियों से दमित और शोषित समाज को एक नया आत्मबोध, एक नई चेतना प्रदान की।

इसी सभा में एक शक्तिशाली घोषवाक्य तय किया गया –
"Educate, Agitate, Organise",
जिसका हिंदी अनुवाद है:
"शिक्षित बनो, आंदोलित करो, संगठित होओ"


घोषवाक्य का मूल आशय

इस वाक्य के पीछे एक गहरा मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण था।
बाबासाहब का उद्देश्य मात्र औपचारिक शिक्षा (डिग्रियाँ) देना नहीं था, बल्कि बुद्धि को जागृत करना, आत्मसम्मान का बोध कराना, और दासता की जंजीरों को पहचानने की दृष्टि देना था।

1. "शिक्षित बनो" का अर्थ:

यहां शिक्षा का आशय केवल किताबी ज्ञान या डिग्री से नहीं था। बाबासाहब मानते थे कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को अपनी स्थिति, अपने अधिकार और अपने शोषण के कारणों को समझने की क्षमता देना है। यह शिक्षा एक वैचारिक शस्त्र है, जो अज्ञान की बेड़ियों को तोड़ने में सहायक है।

"जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती, वह अपने भविष्य का निर्माण नहीं कर सकती।"

इस कथन में शिक्षा का असली अर्थ छिपा है – इतिहास का ज्ञान, पहचान की चेतना और आत्ममंथन की प्रेरणा


2. "आंदोलित करो" का अर्थ:

"आंदोलन" का अर्थ केवल सड़क पर उतरकर विरोध करना नहीं है। यहां आंदोलित करने का तात्पर्य है –
लोगों के अंतर्मन में अपनी दुर्दशा, शोषण और दीनता के प्रति एक प्रकार की चिढ़ या असंतोष उत्पन्न करना।
यह असंतोष ही आगे चलकर क्रांति की नींव रखता है।
जब तक व्यक्ति अपनी दशा को समझकर आंतरिक रूप से बेचैन नहीं होता, तब तक वह व्यवस्था परिवर्तन के लिए तैयार नहीं होता।

बाबासाहब ने इसीलिए कहा था:

"गुलामों को उनकी गुलामी का अहसास करा दो, वे स्वयं ही विद्रोह कर उठेंगे।"


3. "संगठित होओ" का अर्थ:

बिना संगठन के कोई भी क्रांति सफल नहीं हो सकती।
बाबासाहब का स्पष्ट मत था कि जब समान पीड़ा वाले लोग एकत्र होते हैं, तो "Co-Sufferer" की भावना जन्म लेती है –
यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है कि समान कष्ट भोगने वाले लोग एक-दूसरे के अधिक निकट आते हैं और मिलकर परिवर्तन की शक्ति बनते हैं।

संगठन, आंदोलन की रीढ़ होता है, और संगठन तभी टिकाऊ होता है जब वह विचारधारा पर आधारित हो।


बदलते समय में घोषवाक्य का विकृतिकरण

बाबासाहब के जीवनकाल में ही इस नारे को थोड़ा बदलकर कहा जाने लगा –
"Educate, Organise, Agitate" अर्थात
"शिक्षित बनो, संगठित होओ और संघर्ष करो"

यह परिवर्तन तर्कसंगत था क्योंकि उद्देश्य वही था –
पहले लोगों को शिक्षित करना, फिर संगठित करना और फिर संघर्ष के लिए तैयार करना।

लेकिन दुख की बात यह है कि समय के साथ-साथ इस नारे की आत्मा को ही कमजोर कर दिया गया
अब इसे इस रूप में प्रचारित किया जा रहा है:

"शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो" 

यहाँ अब "आंदोलित करो" या चेतना जगाने की प्रक्रिया गायब हो गई है।
शिक्षा का अर्थ सिर्फ डिग्री तक सिमट गया है।

बाबासाहब के आंदोलन से उपजे कार्यकर्ता अब केवल शिक्षित (डिग्रीधारी) तो हो गए, लेकिन उनमें वैचारिक प्रतिबद्धता और आंदोलन की चेतना कम होती चली गई।
वे बुद्धिजीवी तो बने, लेकिन सक्रिय क्रांतिकारी नहीं बन पाए
कुछ तो सत्ता के करीब पहुँचकर उपभोगवादी हो गए और संघर्ष के बजाय सुविधाओं की राजनीति में उलझ गए।


बाबासाहब का दर्द और आज की वास्तविकता

बाबासाहब ने अपने जीवन में इस गिरावट को महसूस किया था।
इसलिए 18 मार्च 1956 को आगरा के रामलीला मैदान में उन्होंने कहा:

"मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया है।"

यह बयान कोई सामान्य आलोचना नहीं, बल्कि गहरा आत्म-पीड़ा से भरा निष्कर्ष था।

आज के दौर में, यह सच पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक है।
हम बाबासाहब की मूर्तियों को पूजते हैं, उनके चित्रों को मंचों पर सजाते हैं, लेकिन उनके विचारों को नहीं अपनाते।
हम "बाबा को मानते हैं, लेकिन बाबा की नहीं मानते"।


अब क्या करना होगा?

यदि हमें बाबासाहब के "व्‍यवस्‍था परिवर्तन" के सपने को साकार करना है, तो हमें उनके मूल विचार को फिर से अपनाना होगा:

  1. शिक्षा को केवल डिग्री नहीं, बल्कि चेतना और वैचारिक प्रशिक्षण मानना होगा।

  2. अपने समाज को आंदोलित करना होगा – उन्हें अपनी दुर्दशा के प्रति जागरूक करना होगा।

  3. एक मजबूत, सशक्त, और वैचारिक संगठन तैयार करना होगा।

"हमारा संघर्ष दयाहीन है – यह एक क्रांति है, इसमें संकोच नहीं चलेगा।" – बाबासाहब


निष्कर्ष

बाबासाहब का दिया हुआ मंत्र "Educate, Agitate, Organise" केवल एक नारा नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन की वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
आज आवश्यकता है कि हम इस मूल मंत्र को उसके वास्तविक अर्थों के साथ फिर से जीवित करें

यह केवल अनुसरण करने का नहीं, बल्कि आत्मसात करने का समय है।

सफलता कैसे..?? जबतक धैर्य नहीं

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आज का समय एक आधुनिक समय है। हर कोई कम समय में कुछ न कुछ कर दिखाना चाहता है। युवा पीढी से भी यही अपेक्षा की जाती है कि वे तुरंत ही कम समय में कुछ कर दिखायें। जितनी भी सफलता उन्हे लेनी है वे जल्दी ही प्राप्त कर लें। माता-पिता में आज कल ये प्रवृत्ति आम हो गई है कि वे अपनी संतानों से वे अपेक्षा करते हैं जो वे अपने जीवनकाल में नहीं प्राप्त कर पाये, इस पूरे झोल में आज का युवा वर्ग फंसा रहता है कि कुछ कर दिखाऊं लेकिन थोडे ही समय में। लेकिन इस तुरंत सफलता प्राप्त कर लेने के चक्कर में वे अपना धैर्य  खोते चले जा रहे हैं। भागदौड भरे इस जीवन में सफलता के साथ-साथ धैर्य भी जरूरी है, जो हमें हमारे लक्ष्य के साथ जोडे रखता है। लेकिन किसी काम को सीखने में या किसी परीक्षा की तैयारी में जितनी मेहनत, लगन व समय देना चाहिये उससे आधा भी नहीं लग पाता। और ऐसे में सफलता और लक्ष्य दूर दिखाई देने लगते हैं। आजकल जो उच्च महत्वाकांक्षाएँ घर कर गई हैं वही इस संपूर्ण विषय की मूल जड़ है जो प्राय युवाओं को उनके लक्ष्य से दूर ले जाती है। क्योंकि यदि उच्च महत्ताकांक्षाएं हैं तो धैर्य बिना सफलता प्राप्त नहीं हो सकेंगी। जल्दबाजी व तुरंत सब होने की चाह भी पूरी मेहनत पर पानी फेर देता है। और ऐसे में हम लोग क्यों न कठिन से कठिन परिस्थिति में भी, कड़ी से कड़ी मेहनत क्यों ना कर रहे हों लेकिन यदि धैर्य हम खोते चले गए तो इतनी मेहनत का कोई लाभ हमें नहीं होने वाला।

यहाँ लाभ का मतलब केवल कोई नौकरी या कोई बड़ी भारी उपलब्धि पा लेने मात्र से नहीं है अपितु मानव जीवन में भी धैर्य और संयम बहुत जरुरी होता है। पल-पल, कदम-कदम पर यदि हम में धैर्य, संयम नहीं हैं तो मानव जीवन ही व्यर्थ है। धैर्य का एक अर्थ यह भी है कि शांत रहते हुए सकारात्मक ढंग से अपने आप को आगे कैसे ले जायें। जब सरल से सरल कार्य भी न हो पाए, हमारे अनेकों प्रयास विफल हो जायें और हमारी हताशा व निराशा एक जगह ही रुक जाये तब यही धैर्य हमारा बुरे वक्त में काम आता है। इन परिस्थितियों में भी विचलित ना होते हुए और अपने अनुभवों को एक सीख के तौर पर लेते हुए जब हम धैर्य के साथ आगे बढेंगे तब हम निश्चित ही अपनी सफलता को प्राप्त कर पाएंगे। 

क्या गरीब सवर्णों को भी आरक्षण के दायरे में लाया जाना चाहिये?

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दलीलें कुछ भी दी जाती रही हों या विरोध में कितनी ही बातें होती रहीं हों। हम यह भी जानते हैं कि लगभग 50 प्रतिशत या उससे ज्यादा लोग हमेशा से सामाजिक आधार पर आरक्षण का समर्थन नहीं करते। वजह कुछ भी दी जाती रहें, लेकिन आरक्षण को लेकर अपनी सोच का विस्तार करने की जरुरत है

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि देश में सामाजिक सहभागिता को बढ़ावा देने के लिए आरक्षण की नितांत आवश्यकता है, साथ ही सच ये भी है कि आज तक अधिकांश लोग आरक्षण के वास्तविक उद्देश्यों के बारे में या तो अनजान है या फिर जानने की कोशिश ही नहीं करते। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि लोगों को आरक्षण के ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझने में मदद की जाये। इसमें कोई संदेह वाली बात ही नहीं है कि देश में आर्थिक असमानता है और यहाँ गरीबी केवल एक चुनावी मुद्दा ही है। इसलिये ऐसे में गरीबी एवं आर्थिक असमानता को जाति एवं क्षेत्र की सीमाओं में बाँधकर देखना सही नहीं लगता। और हमें इस बात को भी सही ढंग से समझ लेने की जरूरत है कि किसी भी समस्या को ठीक करने का उपाय आरक्षण नहीं हो सकता। समस्या की प्रकृति के आधार पर ही उसका निराकरण किया जाना चाहिये तथा उसको कैसे हल किया जाये, ऐसे उपाय खोजने का प्रयास किया जाना चाहिये।

आजकल जो लोग गरीब सवर्णों को आरक्षण के दायरे में लाने की बात कर रहें हैं उन्हे यह समझना होगा कि आरक्षण कभी भी आर्थिक पिछडेपन का सही उपाय नहीं सिद्ध हो सकता। हमारे यहाँ क्षेत्रीय असमान विकास का भी अभाव है। कोई क्षेत्र बहुत ही विकसित एवं साधन संपन्न है तो किसी क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं तक का अभाव है। ऐसी स्थिति में तो क्षेत्र के आधार पर भी आरक्षण दिया जाने लग जायेगा। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिये। हमें कुछ असमानताओं को दूर करने के अन्य उपाय खोजने ही होंगे। साथ ही आरक्षण दिये जाने के निहितार्थ भाव को भी समझना होगा।

और तो और आरक्षण का उद्देश्य कभी भी गरीबी उन्मूलन नहीं रहा। यदि आरक्षण दिये जाने के वास्तविक सत्य को खोजा जाये तो हमें पता चलता है कि किस तरह से एक ऐतिहासिक गलती को सुधारने का यह एक प्रयास मात्र है। हमारे देश में कई ऐसे तबके व पीढी हैं जो सदियों से शोषित होते आयें हैं। शोषित होने का वह तरीका इतना अमानवीय लगता है कि उसका आज भी जिक्र करना किसी सजा से बदतर होगा। ऐसी स्थिति से उभरकर आये वे लोग व पीढी मुख्यधारा से आज भी अलग थलग ही पडे नजर आते हैं। अत: इस सामाजिक असमानता को दूर करने के लिये आरक्षण दिया गया। और इसमें सामाजिक व शैक्षणिक पिछडेपन को इसका मूलआधार बनाया गया। यदि गौर किया जाये यह क्रूर असमानता आज भी है। हाँ, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि गरीबी एक देशव्यापी समस्या है जिससे हर जाति-वर्ग-धर्म लड़ रहा है। परन्तु इसका समाधान अलग तरीके से होना चाहिए। अगर सही सोच रखें तो देश में आर्थिक विकास को बढ़ावा देना इसका प्रमुख समाधान है। देखा जाये तो वर्तमान में भी सरकार गरीबी रेखा का निर्धारण करती है, गरीब चाहे कोई भी हो किसी भी जाति-वर्ग से हो, जन वितरण प्रणाली के द्वारा सरकार अत्यंत सस्ते मूल्यों पर अनाज मुहैय्या कराती है। हमें चाहिए कि गरीबी रेखा के निर्धारण को और तर्कसंगत एवं व्यावहारिक बनाएं। 

हाँ, और एक बात सवर्ण लोगों और आरक्षित लोगों के मध्य खाई इतनी बड़ी बनाई जा रही है जिससे सरकार अपनी कमियों को छुपाने और केवल पल्ला झाड़ने का ही काम करती है। यदि देखें तो आरक्षित जगहों, सीटों, मंत्रालयों, आफिसों, कार्यालयों में आज भी आरक्षण के रहते हुए भी वहां आरक्षित लोग ही नहीं पहुँच पाते, या फिर पहुँचने नहीं दिए जाते। सवर्ण लोग गरीबी का बहाना बना कर आरक्षण को ख़त्म करने की मांग हर समय उठाते रहते हैं, उन्हें यह जानने की जरुरत है कि वे हर जगह बहुमत में हैं जबकि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति 22.5% का आरक्षण लेकर भी अपने अधिकार को समझ नहीं पाये हैं। 
हाल ही में करायी गयी जनगणना में जातिगत आकडे भी अभी तक उपलब्ध नहीं कराये गए। क्यों वह सब छुपाये गए हैं, क्यों समय पर जारी नहीं कराये गए? समझ सकते हैं। क्या कारण हो सकता है?

अतः स्पष्ट है कि मूल रूप से गरीब सवर्णों को आरक्षण के दायरे में लाना इस समस्या का हल नहीं है। इससे तात्कालिक लाभ जरुर मिल जाये पर दीर्घकालीन हल ये बिलकुल नहीं हो सकता। इसके लिए विशेष रूप से गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम और आर्थिक रूप से मदद के ऊपर सोचने की जरुरत है न कि आरक्षण का दायरा बढाने की। 

दावे कुछ हकीकत कुछ

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प्रधानमंत्री मोदी जी ने अपनी अचानक से 8 नवम्बर को की गयी घोषणा से पूरे देश सहित पूरे विश्व को ही चौंका कर रख दिया। माना ये भी जा रहा था कि अब सब सही होगा और देश तरक्की की नयी राह को पकड़ेगा। लेकिन दावे कुछ किये जाते हैं और हकीकत कुछ सामने आती है। जी हाँ, बिलकुल सही पढ़ा आपने। हमें सभी को लगा था कि ये फैसला आम, गरीब, ईमानदार जनता से हटकर भ्रष्ट और बेईमान लोगों को सबक सिखाने के लिए किया गया फैसला होगा। पर लोगों को कतार में खड़े खड़े कुछ भी हासिल नहीं हो रहा, मात्र इसके कि वो पुराने नोट बदलकर नए ले जा रहे है। हम लोग किसी धन्ना सेठ, नेता, अभिनेता, पूंजीपति, बिजनेसमैन, उद्योगपति, बिल्डर, पुजारी, ब्यूरोक्रेट्स जैसे बड़े लोगों को कतार में देखने में असमर्थ है। ऐसा लगने लगा है कि काला धन आम जनता के ही पास था जो वो बैंकों में जमा करने के लिए वे कतार में लगे हैं।

 वैसे तो मोदी जी के फैसले का देश की जनता ने समर्थन किया है लेकिन दिनों दिन बीतते-बीतते अब ये बात भी खलने लगी है कि आखिर इन सब में वाकई देश का हित था? अगर नहीं.. तो हित किसका था? जनता को तो लगा था कि बेईमानों पर चोट लगेगी और काला धन रखने वाले धन-कुबेरों का बहुत भारी पैसा रद्दी के मात्र कुछ टुकड़े में बदल जायेगा लेकिन सरकार के रोज रोज नए फरमान और नियमों के आने से, जनता मायूस हो रही है। सबसे ज्यादा फायदा तो राजनीतिक पार्टियों को ही दिखाई देता है, वे लोग जितना मर्जी धन जमा कर लें। उन पर न तो कोई टैक्स लगेगा और न उनसे उनके जमा पैसे का कोई स्रोत ही पूछा जायेगा

तो क्या सिर्फ आम जनता बेईमान है और सारे नियम जनता के ही लिए हैं। नोटबंदी के इतने दिन हो जाने के बाद भी सबसे ज्यादा तकलीफ में आम जनता, गरीब और किसान लोग ही नज़र आते हैं। 

इससे बेहतर होता कि कोई अच्छी और दुरुस्त नीति पर ध्यान दिया जाता जो सौ प्रतिशत में से उन अठान्बे फीसद काले धन पर हमला करती जो सोने के रूप में, रियल एस्टेट और विदेशी बेंकों में जमा है। पर शायद उससे उन बड़ी मच्छलियों को भी समस्या उत्पन्न हो सकती थी जो सरकार में हैं और या फिर किसी न किसी मोड़ पर सरकार या बड़े लोगो को मदद कर रही हैं

वैसे तो नोटबंदी सिर्फ काले धन के भंडार पर हमला करता है, उसके प्रवाह पर नहीं। यानी इससे भविष्य में होने वाले भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आएगीअसल में समस्या बड़े नोटों को नहीं, चरित्र और नैतिक मूल्यों की है, जिनका हमारे देश में आभाव है

फ़ैसले का असर

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काले धन और भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए मोदीजी ने अचानक से पांच सौ और एक हज़ार के रूपये के नोटों को बंद कर दिए जाने का फैसला सुना दिया। माना जा रहा है कि इस कदम से कर चोरी के मामले उजागर हो सकेंगे, भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकेगी, काले धन को रद्द किया जा सकेगा, हवाला के जरिये नकदी का प्रवाह रुक जायेगा साथ ही आतंकवाद की फंडिंग भी रुक सकेगी। 

लेकिन इसी बीच अचानक फैसले से आम, गरीब, ईमानदार और सामान्य लोगों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। शुरुआत में नकदी निकलने की सीमा कुछ कम है जबकि कुछ दिन बाद पैसा निकलने की सीमा को बढाया जायेगा। फिलहाल तो लोगों की भीड़ अपना पुराना पैसा जमा करने की या पैसा बदलवाने की ही लगती हुई ही नज़र आ रही है, जिसमे क़तार इतनी लम्बी है कि कुछ लोगों को भीड़ देखते हुए ही वापस लौट जाने को मजबूर होते हुए भी देखा जा सकता है। फिर भी प्रधानमंत्री के इस फैसले के साथ लोगों को जुड़ते हुए देखा जा सकता है। हालांकि ये पहला मौका नहीं है जब बड़े नोटों को चलन से बाहर किया गया हो। लेकिन इसबार अचानक सब होने से बढती जनसंख्या और बढती जरूरतों के सामने ये सब अफरा-तफरी का माहौल ही दिखाई दे रहा है। फिर भी बीजेपी ये कहने से नहीं चूंक रही कि ये फैसला लेने के लिए वे मजबूर भी इसलिए थे क्योंकि लम्बे समय से स्वैच्छिक कर घोषित करने की अपील के बावजूद लोग अपना सकारात्मक रुख नहीं दिखा रहे थे। इसलिए चोरी और बेनामी संपत्ति पर अंकुश लगाने के मकसद से ऐसा किया जाना भी जरुरी हो गया था।
लेकिन कुछ लाख/करोड़ लोगों को पकड़ने के लिए पूरे देश की जनता को क़तार में ला के खड़ा कर दिया गया। जिसमें सबसे बड़ी कठिनाई हमारे देश के किसानों, मजदूरों और दूर गाँव की गरीब जनता को होने वाली ही दिखती है। उनके सामने निश्चित ही संकट की घडी है। 

500 और 1000 रूपये के पुराने नोट पूरी तरह बंद करने का फैसला

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काले धन को लेकर पीएम मोदी ने बड़ा फैसला लेते हुए 500 और 1000 रूपये के पुराने नोटों को पूरी तरह बंद करने का फैसला किया है। जल्द आएगा 2000 रूपये का नोट भी।

इन नोटों पर आज आधी रात से ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। 

केवल 72 घंटो के लिए अस्पतालों, मेडिकल स्टोर्स, पेट्रोल पम्पों, गैस स्टेशनों, रेलवे व हवाई जहाज के टिकट बुकिंग काउंटर्स व सरकारी उपभोक्ता सहकारी स्टोरों पर ही चल पाएंगे। 
बाकी पब्लिक कार्यों के लिए फिलहाल ये सब नोट केवल कागज के मात्र कुछ टुकड़े बनकर रह गए हैं। केवल 30 दिसम्बर 2016 तक बैंकों व डाक खानों में ही अपने पुराने नोटों को अपने खातों में जमा करा सकते हैं और 4 हजार तक की नकदी रकम अपना एक पहचान पत्र दिखा कर बैंकों से बदल सकते हैं। मगर ध्यान रहे 2.5 लाख से ज्यादा रुपया जमा कराने वालों पर आयकर विभाग और वित्त मंत्रालय ख़ास नज़र रखेगा। 

मेरे विचार से:-
8 नवम्बर, रात 8 बजे प्रधानमंत्री मोदी जी देश के नाम सन्देश देने वाले थे। जैसे ही मोदी जी ने अपनी बात शुरू की सब समझ ही गए कि कोई चौंका देने वाला समाचार प्राप्त होने वाला है और ऐसा ही हुआ। 
साथ ही कहीं न कहीं हम आम ईमानदार भारतीय नागरिकों के लिए ये राहत की सांस भी मिली थी कि कम से कम किसी प्रधानमंत्री ने काले धन पर लगाम लगाने का कुछ तो काम किया। 
इस नोटबंदी की खबर को प्रधानमंत्री ने खुद ही देश को बताना सही समझा, जो एक बेहद अच्छा फैसला था। साथ ही यह भी बताया कि इस खबर की किसी को कानों कान खबर भी नहीं थी। केवल खुद प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री व कुछ सदस्य और RBI के उच्च अधिकारियों को ही यह जानकारी थी। यदि इस बात की किसी को खबर भी लगती तो भ्रष्ट लोग अपना काला धन तेजी से सफ़ेद कर डालते। इसलिए यह पूरी प्रक्रिया गुप्त रखी गयी। 

यूँ तो विरोध होना शुरू हो गया है, बाकी बाद में समय के साथ पता लगेगा कि क्या होता है? यदि नोटों के बदलाव की सुचना वाकई में गुप्त रखी गयी थी तो बेहद उच्चस्तरीय, सरहनीय व देशहित के लिए लिया गया फैसला होगा। पर यदि कहीं कोई बात लीक हुई होगी तो यह फैसला आम भारतीय जनता व गरीब लोगों के परेशान करने मात्र तक सिमट कर रह जायेगा क्योंकि किसी को पहले से ही योजना के लीक हो चुकी हुई सुचना मिली होगी तो ये अमीर, पूंजीपति-उद्योगपति, मंत्री-नेता, ब्यूरोक्रेट्स, बिल्डर्स सब अपना रुपया-पैसा ठिकाने लगा चुके होंगे।

NDTV इंडिया पर पहले बैन लगाया.. फिर हटाया...

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भारत के एक हिन्दी समाचार चैनल NDTV इंडिया पर एक दिन का बैन लगते हुए 9 नवम्बर को ऑफ एयर किया जाना था। जिसकी जानकारी मिडिया में सामने आते ही सरकार के इस फैसले की काफी आलोचना की जाने लगी। एडिटर्स गिल्ट, प्रेस क्लब के साथ साथ तमाम मीडिया जगत, संगठन एकजुट हुए व बोलने की स्वतंत्रता और मीडिया के अधिकारों का पक्ष सरकार के सामने रखा और फैसले को अलोकतांत्रिक बताया गया। जिसके बाद विपक्षी दलों ने भी पाबन्दी पर सरकार पर अपनी तरफ से हमला बोला। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने NDTV इंडिया पर पठानकोट पर हुए आतंकी हमले की उस खबर को चलाने के लिए दोषी पाया था जिसके कारण संवेदनशील सूचनाएं दुश्मनों तक आसानी से पहुँच सकतीं थी और राष्ट्र सुरक्षा व अपने सैनिकों को खतरा बन सकता था।

यह सब सही है, ठीक है लेकिन ऐसे अवसर पर मीडिया द्वारा रिपोर्टिंग कर पाना उतना आसन नहीं होता जैसा कि बाकी विषयों पर रहता है। जिसकारण से मीडिया मूलतः मिल रही सूचनाओं को ही संयम व सतर्कता से ही पेश करती है। यही NDTV ने बचाव के लिए अपना पक्ष रखा जिसमें कहा गया कि उनकी खबर और रिपोर्टिंग संतुलित थी और वही खबर चलाई गयी जो या तो पहले से ही इन्टरनेट पर मौजूद थी और वही खबर दूसरे पहले से ही चला रहे थे।


अब सवाल यह उठता है कि NDTV इंडिया ने कौन सी खबर को उजागर किया जो पहले से सार्वजानिक जानकारी में न रही हो? सरकार ठीक तरह से यह बात साफ़ नहीं कर पायी है। अब इससे अलग सरकार का चैनल पर पाबन्दी का कदम एक तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ हुआ, जिसकी गारंटी हमारा संविधान देता है। 

अंत में बड़ी गंभीर स्थिति बन जाने से, NDTV द्वारा सुप्रीम कोर्ट में बैन के खिलाफ अपील किये जाने से व आम लोगों द्वारा NDTV इंडिया के समर्थन में आ जाने से सुचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने यह पाबन्दी का फैसला "तत्काल रद्द" कर दिया गया है और बैन हटा दिया गया है।

घुटता है दम दम.. घुटता है :(

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दिल्ली इन दिनों बड़ी खतरनाक तरह से हुई प्रदूषित हुई हवा की मार झेल रहा है। याद है मुझे जब 2016 में दिल्ली में ऑड-ईवन को कुछ समय के लिये ट्रायल के तौर पर लागू किया था.. तब भी शायद pm2.5 270-300 के आस पास रहा होगा। लेकिन दीपावली के बाद से जो प्रदूषण बढ़ा वह अब थमने का नाम नहीं ले रहा। साथ ही दिल्ली के पडोसी शहर और राज्य भी इस खतरनाक प्रदूषण की चपेट में हैं, जिसका प्रमुख कारण है पंजाब, हरियाणा व आसपास के किसानों द्वारा पराली/फसलों के बचे अवशेष जलाना। जिसके जलने के बाद प्रदूषित छोटे-छोटे कण हवा के साथ मिल जाते हैं। दूसरा, यह भी हमें समझने की आवश्यकता है कि सरदी व वातावरण ऐसा होने से यह जहरीली हवा धुंध बनकर नीचे ही नीचे जमी रहती है जिसका आलम यह है कि प्रदूषण कम होने की बजाए दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। रविवार को रात 10 बजे pm2.5 ही 1000 को पार कर गया, यह पिछले 17 साल की रिकार्ड तोड धुंध मानी गयी। अब किसी शहर के लिए इससे भी ज्यादा चिंता की खबर क्या होगी कि उसे प्रदूषण ज्यादा होने की वहज से नागरिकों को घर से बाहर न निकलने की चेतावनी जारी करनी पड़े। अगले तीन दिन सभी स्कूलों की सरकारी छुट्टी का भी ऐलान भी किया गया है। लोगों से अपील है कि वे ज्यादा से ज्यादा घर में ही रहें, व कूडा न जलाएं, जनरेटर न चलायें, कहीं जाना हो पब्लिक एसी ट्रांस्पोर्ट या कार पूलिंग का प्रयोग करें। प्रदूषण को देखते हुए कुछ दिनों के लिए बाहर से आने वाले ट्रकों को शहर में प्रवेश पर रोक लगाने की कोशिश भी की गयी। लेकिन इन उपायों का कोई उल्लेखनीय नतीजा नहीं निकल पाया।

ये हवा में घुले जहरीले प्रदूषण व रसायनों से लोगों के फेंफडो व गुर्दों वहैराह पर बुरा असर पड रहा है। साथ ही ये सामान्य है कि लोगों को खांसी-जुखाम, सिरदर्द, बुखार जैसी परेशानी भी झेलनी पड़े। दिल्ली सरकार भी इस खतरनाक चुनौती से निपटने के उपाय तलाशने मे जुटी है। ऐसे में फ़िलहाल दिल्ली जिस स्थिति से गुजर रही है, उसमें लोगों को इंतजार है कि कब तेज हवाएं चलें. बारिश हों और जहरीले कण नीचे बैठ जाएँ जिससे कुछ राहत मिल सके।

लेकिन जितनी आवाज व्यवस्था के खिलाफ दिल्ली के समझदार लोगों द्वारा उठाई जा रही है, वो लोग अपने कर्तव्य का पालन करना ही जरुरी नहीं समझते। हैरानी की बात ये भी है कि सब कुछ जानते हुए भी पटाखे, परली, फसलों के अवशेष, कचरा आदि जलाने और अकेले वाहनों में बिना बात घूमने वालों की भी कमी नहीं है। ऐसे आधे अधूरे समझदार लोग भी चिंतित दिखते हैं।

इस बार की दिवाली रही ज्यादा ज़हरीली.. :(

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रविवार की दीपावली बडे धूम-धाम से मना लेने के बाद हम लोग आज इस विषय पर चर्चा करते नजर आ रहें हैं कि दिल्ली की हवा में दीपावली पर फोडे पटाखों के कारण जहर घुल गया है। अब किसी त्योहार को मानाने के तौर-तरीके ऐसे तो कम से कम नहीं होने चाहिए कि हम अपने वातावरण का ख्याल रखना ही भूल जायें। लेकिन दीपावली की आड़ में हमने ऐसी मानसिकता तैयार कर ली है कि यदि पटाखे ना फोड़े तो दिवाली मनी मानते ही नहीं। 

अब ऐसी चर्चा करने की जरूरत पडी ही क्यों?
यदि हम लोग कुछ थोडे से भी पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होते तो कहीं भी इस विषय पर चर्चा करने की विशेष जरूरत ना पडती, सब कुछ सामान्य ही रहता। 
पर हम सभी को तो पहले से ही पता था कि दिल्ली की हवा बेहद खतरनाक तरीके से दूषित थी और हम जहरीली हवा में रोजाना सांस ले रहें हैं तो पटाखों के और खतरनाक जहर को भी हवा में हमने मिलने दिया। ये एक दूसरे की हट-होड व कुछ क्षण की मस्ती ने दिल्ली की हवा को पिछले साल के मुकाबले भी ज्यादा जहरीली बना दिया और दिवाली के बाद प्रदूषण स्तर में 14-16 गुना वृद्धि कर दी। हवा की गुणवत्ता पर नज़र रखने के बाद केन्द्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड ने बताया कि इस बार वायु में पार्टिकुलेट मैटर जैसे जहरीले तत्वों की मात्रा सुरक्षित मानकों के मुकाबले दस गुणा से भी ज्यादा बढ़ गयीं। अब इसके चलते लम्बे समय तक सांस लेने और आँखों से सम्बंधित किस तरह की तकलीफें होंगी, ये स्वाभाविक ही है।

प्रदूषण का आलम ऐसा रहा कि सोमवार सुबह धुंध में 100 मीटर देख पाने की दृश्यता मुश्किल सी लग रही थी।
सवाल अब भी कई उठते हैं कि कई दिनों से ट्वीटर, फेसबुक व तमाम सोश्ल नेटवर्किंग साइट्स पर प्रदूषण कम करने की मुहिम समेत सब योजनायें धरी की धरी रह गई। इसका मतलब यह भी हुआ कि हमें केवल स्टेटस और ट्वीट को ट्रेंड कराना है और थोडे से लाइक्स बटोर लेने हैं। सामाजिक दायित्व तो हमारा कुछ बनता ही नहीं। हम तो मस्त अपना कार्य करेंगे और प्रदूषण को कंट्रोल करने की जिम्मेदारी सरकार पर छोडेंगे। अब हमारी क्या जिम्मेदारी हो सकती है?? हम अब दिवाली भी ना मनाएं??

अब जब ऐसे चिंताजनक विषयों पर ही सामान्य नागरिकों की अलग अलग राय है तो फिर प्रदुषण की चिंता करना एक मजाक के समान समझा जा सकता है। एक शख्स को तो यह तक कहता सुना गया कि "दिवाली मनाई है, कुछ मनाई जैसी लगनी तो चाहिए ना।"

ऐसे त्योहार मनाने, उत्साह का तरीका व दिखावे की होड़ पर्यावरण की फ़िक्र पर हावी हो जाती है। ऑड-इवन जैसे थोड़े समय के प्रयोग भी लोगों की जिद, होड़ के आगे असफल साबित हुए। वो तो चलो गाड़ियों के लिए था परन्तु पटाखों के इस्तेमाल को लेकर भी कोई नीति अपनाने की जरुरत है। क्योंकि दीपों के उजालों व मिठाइयों से ज्यादा खर्चा तो हम पटाखों पर कर देते हैं। जिसके बाद मिला भी तो क्या प्रदूषण और ज़हरीली हवा। अब कोई सरकारी नीतियां बने या ना बने पर यदि हम अपनी संवेदनशीलता, प्रकृति संतुलन की समझ भी खोए बैठे रहे, तो जो हुआ ऐसा ही होगा। नहीं तो इससे भी भयानक होगा भविष्य में। बस दीपावली पर दीप मत जलाइए, पूजा मत करिए, रोशनी मत फैलाईये, मिठाई पर खर्चा मत कीजिये...... करना है तो बस...फोड़ते रहिये पटाखे और लेते रहिये जहरीली हवा में सांस।