कुर्सी नहीं, जाति हटाइए — पहले अपने भीतर से, फिर समाज से


कभी कोई तस्वीर हमारी आंखों से गुजरती है और सीधा दिल में उतर जाती है। एक शिक्षक ज़मीन पर बैठा है, सामने उसकी डेस्क पर कंप्यूटर और फाइलें रखी हैं, लेकिन उसके पास बैठने को कुर्सी नहीं। न कोई शोर, न गुस्सा, न शिकायत। बस मौन, लेकिन ऐसा मौन जो चीख रहा था — “क्या मेरी जाति मेरी काबिलियत से ज़्यादा ज़रूरी है?”

यह तस्वीर थी डॉ. रवि वर्मा की, आंध्र प्रदेश की एक सरकारी वेटरनरी यूनिवर्सिटी के सहायक प्रोफेसर। बीस वर्षों से पढ़ा रहे हैं, लेकिन न उन्हें नियमित नियुक्ति मिली, न वेतन जो उनके बराबरी के सहयोगियों को मिलता है। अब हालात ऐसे हैं कि एक दिन उनकी कुर्सी ही हटा ली गई। और वो बिना कुछ बोले ज़मीन पर बैठ गए।

यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं है, यह उस सोच की है जो आज भी इस देश की शिक्षा-व्यवस्था के ऊपरी चेहरे के पीछे छिपे कड़वे सच को सामने लाती है।


बीस साल की मेहनत, फिर भी दोयम दर्जा

डॉ. रवि वर्मा कोई नए शिक्षक नहीं हैं। वे दो दशक से ज्यादा समय से शिक्षण कार्य में लगे हैं। उन्होंने वैसी ही कक्षाएं लीं, वैसी ही रिसर्च कराई, वैसी ही नीतियां लिखीं जैसे उनके अन्य सहयोगियों ने कीं। फर्क सिर्फ इतना था — उनका जन्म एक दलित परिवार में हुआ था।

जब उन्होंने वेतन में असमानता पर सवाल उठाया, तो जवाब मिला कि वे UGC के मानकों पर खरे नहीं उतरते। पर वही मानक कई अन्य शिक्षकों के लिए क्यों लागू नहीं हुए, यह कोई नहीं बताता। अदालत ने भी उनके पक्ष में आदेश दिया कि उन्हें समान वेतन मिले। लेकिन अदालत के आदेश को मानना इस व्यवस्था के लिए उतना जरूरी नहीं जितना जातिगत सत्ता-संतुलन को बनाए रखना।

और अब, कुर्सी हटा दी गई। क्योंकि ‘वो प्रोफेसर हैं, क्या वाक़ई या प्रोफ़ेसर से पहले कुछ और भी?’
जी हाँ वो तो ज़रूर देखा जाएगा और वो है उनकी - "जाति"


यह सिर्फ एक कुर्सी नहीं थी, यह पहचान का प्रतीक थी

कुर्सी कभी-कभी केवल लकड़ी की या लोहे की नहीं होती। वह एक स्थान होती है — सम्मान का, स्वीकृति का, और सबसे अहम, समानता का। किसी को उस कुर्सी से हटाना सिर्फ उसे ज़मीन पर बैठा देना नहीं होता, उसे यह जताना होता है कि “तू वहीं रहे, जहां तेरी जगह है।”

डॉ. वर्मा ने उस जगह को ज़मीन बनाकर भी छोड़ दिया, लेकिन अपना आत्मसम्मान नहीं छोड़ा। उन्होंने विरोध नहीं किया, कैमरे में आकर आंसू नहीं बहाए। उन्होंने सिवाय अपने काम के कुछ नहीं दिखाया।

और शायद, यही इस पूरी घटना को इतना बड़ा बना देता है। उनकी चुप्पी हर उस शिक्षक के लिए एक संदेश थी जो जाति के कारण हर दिन अपमान झेलता है।


ऐसी घटनाएं अनोखी नहीं, आम होती जा रही हैं

जिसे हम एक "घटना" मानते हैं, वह असल में वर्षों पुरानी एक परंपरा है। हमारे देश के विश्वविद्यालयों और विद्यालयों में ऐसे सैकड़ों डॉ. वर्मा हैं, जो समान कार्य कर रहे हैं लेकिन उन्हें बराबरी नहीं मिलती। वे विभागों के अंदर निर्णयों से दूर रहते हैं, प्रशासन में उनके लिए जगह नहीं होती, और निरंतर हर मोड़ पर उनकी अनदेखी की जाती है।

आज भी एक दलित को आज भी अपनी बात साबित करने के लिए दुगना श्रम करना पड़ता है, क्योंकि उनके ज्ञान को उनकी जाति से तौला जाता है। यह अपमान केवल वेतन या कुर्सी तक सीमित नहीं है। यह मानसिक प्रताड़ना है, जो हर दिन जीने को मजबूर करती है।


जाति का जाल शिक्षा तक फैला है, धर्म और संस्कृति के पर्दे में भी

इस तरह की घटनाएं सिर्फ शिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के एक ज़िले में हाल ही में एक यादव जाति के कथावाचक को समाज के बीच सिर मुंडवाकर अपमानित किया गया, सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने धर्म से जुड़ा वह मंच छूने की हिम्मत की, जिसे परंपरागत रूप से "ब्राह्मणों का क्षेत्र" माना जाता है।

यह सोच समाज को बताती है कि चाहे व्यक्ति कितना ही पढ़ा-लिखा हो, उसकी जाति ही उसकी सीमा तय करेगी।

यह अपमान सिर्फ उन लोगों का नहीं है जो इस अन्याय के शिकार हैं। यह उन सबका है जो इस समाज में बराबरी का सपना देखते हैं।


क्या शिक्षा संस्थानों का काम समानता सिखाना नहीं था?

शिक्षण संस्थान किसी भी समाज की आत्मा होते हैं। वे वह स्थान होते हैं जहां विचार पनपते हैं, परंपराएं टूटती हैं और नया भविष्य लिखा जाता है। लेकिन अगर वहीं जातिवाद जिंदा है, तो फिर हमें खुद से पूछना होगा — क्या हमारे शिक्षक केवल पाठ्यक्रम पढ़ा रहे हैं, या इस समाज की वर्ण-व्यवस्था भी?

डॉ. वर्मा के साथ जो हुआ, वह केवल उनके अधिकार का हनन नहीं है, वह शिक्षा की आत्मा का अपमान है। जिस देश में गुरुओं को भगवान कहा जाता है, वहां एक दलित गुरु को कुर्सी से हटाकर ज़मीन पर बैठा देना केवल प्रशासनिक भूल नहीं हो सकती।


जब कानून भी कमजोर पड़ जाए

डॉ. वर्मा का मामला यह भी दिखाता है कि हमारे संविधान और न्याय प्रणाली की पहुंच कितनी सीमित हो चुकी है। उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद उन्हें समान वेतन नहीं मिला। जब अदालत का आदेश भी लागू न हो, तो आम आदमी किस दरवाज़े पर इंसाफ मांगे?

ऐसे में सवाल यह है — क्या हम एक ऐसी व्यवस्था में जी रहे हैं, जो संविधान की किताब तो दिखाती है लेकिन चलती उन परंपराओं पर है जो जाति के आधार पर सब कुछ तय करती हैं?


एक शिक्षक की तस्वीर, हजारों सपनों की आवाज़

डॉ. वर्मा आज सिर्फ एक व्यक्ति नहीं हैं। वे एक विचार बन गए हैं। वे उस लड़ाई का प्रतीक हैं, जो शिक्षा को वास्तव में समानता का हथियार बनाना चाहती है। वे उन लाखों युवाओं की तरफ से खड़े हैं, जो जाति की सीमाओं को तोड़ना चाहते हैं, लेकिन हर बार कोई अदृश्य दीवार उन्हें रोक लेती है।

उनकी तस्वीर में जो मौन है, वह इस देश की सबसे मुखर पुकार है।


अब वक्त है—सिर्फ कुर्सी नहीं, मानसिकता हटाने का

हमें यह समझना होगा कि बदलाव केवल नीतियों से नहीं आता, वह सोच से आता है। जब तक विश्वविद्यालयों में निर्णय जाति देखकर लिए जाएंगे, जब तक शिक्षकों को सम्मान जाति के आधार पर मिलेगा, तब तक कोई भी शिक्षा व्यवस्था "विकसित" नहीं कहलाएगी।

अब ज़रूरत है कि हम सिर्फ "आरक्षण खत्म करो" के नारे नहीं लगाएं, बल्कि ये समझें कि आरक्षण क्यों आया था, और बड़ा सवाल तो ये भी है कि जातियाँ क्यों नहीं ख़त्म करना चाहते ये लोग?


निष्कर्ष

डॉ. रवि वर्मा की कहानी हमें शर्मिंदा करती है, लेकिन साथ ही चेतावनी भी देती है। वह बताती है कि जब तक समाज के लोग जाति देखकर कुर्सियां हटाते रहेंगे, तब तक ज्ञान, बराबरी और न्याय जैसे शब्द खोखले बने रहेंगे।

उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनका सवाल अबतक गूंज रहा है —
"कुर्सी से गिराया है, क्या इंसानियत से भी गिरा दोगे?"

अब समय है जवाब देने का, सिर्फ नारे लगाने का नहीं।
अब वक्त है, सोच बदलने का — क्योंकि सिर्फ कुर्सी हटाना हल नहीं है, जातिवाद की मानसिकता हटाना ज़रूरी है।

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