एक संदेश देने का प्रयास है कि “धार्मिक मंच तुम्हारे लिए नहीं है।”


कभी धर्म को जोड़ने वाला माना गया था। वह जो मनुष्य को मनुष्य से, और आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। लेकिन जब धर्म पर वर्ण का वर्चस्व चढ़ जाता है, तो वह न जोड़ता है, न ऊपर उठाता है — सिर्फ रौंदता है। उत्तर प्रदेश के इटावा ज़िले में एक ऐसी ही दिल दहला देने वाली घटना सामने आई, जहां एक यादव जाति के कथावाचक को सिर्फ इसलिए अपमानित किया गया, क्योंकि उसने कथा सुनाई थी — वह काम जिसे ब्राह्मणों की बपौती माना जाता रहा है।

यह घटना न केवल उस व्यक्ति की गरिमा का अपमान है, बल्कि भारत के उस संविधान की भी तौहीन है, जो हर नागरिक को समानता और सम्मान का अधिकार देता है। लेकिन क्या वाकई यह समानता अब तक ज़मीन पर उतर पाई है?


घटना 

इटावा के एक गांव में रहने वाले एक युवा यादव कथावाचक पिछले कई वर्षों से धार्मिक कार्यक्रमों में श्रीराम कथा, श्रीमद्भागवत और सत्संग करते आ रहे थे। उन्होंने न केवल श्रद्धालुओं का मन जीता था, बल्कि समाज में एक अध्यात्मिक उपस्थिति भी स्थापित की थी। पर यहीं से उनके संघर्ष की शुरुआत हुई।

कुछ उच्च जाति के स्थानीय लोगों को यह बात चुभने लगी कि कोई 'नीची जाति' का व्यक्ति ब्राह्मणों जैसे मंच पर खड़ा होकर धर्म की बात करे। वे इससे बुरी तरह असहज हो गए। कथावाचक को धमकियां मिलनी शुरू हुईं। पहले दबाव डाला गया कि वह कथा करना बंद कर दे, लेकिन जब उसने मना किया, तो उसके साथ बर्बरता की सारी हदें पार कर दी गईं।

उसे पीटा गया, उसके सिर के बाल जबरन मुंडवाए गए और उसे अपमानित किया गया। यहाँ तक की मूत्र तक छिड़का गया। यह दृश्य सिर्फ एक व्यक्ति को नीचा दिखाने का नहीं था — यह पूरे ओबीसी समाज को एक संदेश देने का प्रयास था: “धार्मिक मंच तुम्हारे लिए नहीं है।”


ब्राह्मणीक सोच का प्रतिरोध करने की सज़ा

यह कोई पहली बार नहीं था जब किसी पिछड़ी जाति के व्यक्ति को धार्मिक अधिकारों का प्रयोग करने पर प्रताड़ित किया गया हो। यह उस परंपरा का ही विस्तार है, जहां ‘शूद्रों’ को वेद सुनना वर्जित था, मंदिरों में प्रवेश निषिद्ध था, और धार्मिक कर्मकांड करना अपराध समझा जाता था।

आज संविधान ने इन प्रतिबंधों को मिटा दिया है, लेकिन मानसिकता अब भी मध्ययुग में जी रही है। इटावा की यह घटना स्पष्ट करती है कि ब्राह्मणवाद की सोच आज भी यह नहीं पचा पा रही कि यादव, दलित या कोई अन्य वंचित वर्ग धर्म के मंच पर बराबरी से खड़ा हो सके।


धर्म बनाम वर्ण: यह किसकी कथा है?

जब कोई व्यक्ति कथा करता है, वह केवल ग्रंथों का पाठ नहीं करता — वह संस्कृति, आस्था और समाज को जोड़ने का कार्य करता है। लेकिन अगर वही व्यक्ति सिर्फ इसलिए अपवित्र मान लिया जाए क्योंकि वह यादव जाति से आता है, तो सवाल उठता है — धर्म बड़ा है या जाति?

धर्म कहता है कि आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता। फिर वही धर्म जाति के आधार पर कथावाचक को क्यों नकार देता है? यह धार्मिक नहीं, ब्राह्मणीक राजनीति है। यह उस सत्ता को बचाने की कोशिश है, जो सदियों से वर्ण व्यवस्था की सीढ़ियों पर टिकी है।


जब ओबीसी का ‘धार्मिक उत्थान’ बन जाए सवर्णों की घबराहट

यादव समाज, जो भारत में OBC का एक मजबूत और संगठित वर्ग है, लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक रूप से उभरता आया है। लेकिन उनकी धार्मिक भागीदारी अब भी वर्जित मानी जाती है। मंदिरों में पुजारी बनने से लेकर कथा मंचों तक — सब कुछ आज भी ब्राह्मणों की बपौती समझा जाता है।

इसी मानसिकता का शिकार हुआ इटावा का कथावाचक। उसके कर्म की पवित्रता से नहीं, उसकी जाति से लोगों को दिक्कत थी। यह वह सामाजिक जातीय आतंकवाद है, जो किसी भी व्यवस्था से कम खतरनाक नहीं है।


मीडिया की चुप्पी और समाज की उदासीनता

इतनी बड़ी घटना के बावजूद मुख्यधारा मीडिया ने इसे शायद ही कोई प्रमुखता दी। यह एक बार फिर साबित करता है कि जब उत्पीड़ित वर्ग से जुड़ी घटनाएं होती हैं, तो मीडिया की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। न कोई डिबेट, न हेडलाइन — जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

यह चुप्पी साझी साज़िश है — सत्ता, समाज और संचार की। जब तक उत्पीड़न किसी वोटबैंक या टीआरपी का हिस्सा नहीं बनता, तब तक वह समाज के लिए "अनदेखा" बना रहता है।


इतिहास से सबक: यह घटना अकेली नहीं है

  • 2015 में कर्नाटक में एक दलित पुजारी को यज्ञ में बैठने से मना किया गया।

  • 2021 में राजस्थान में एक दलित लड़के को मंदिर में पानी पीने पर पीट-पीटकर मार दिया गया।

  • अब 2025 में इटावा में एक यादव को सिर्फ कथा करने पर अपमानित किया गया।

ये घटनाएँ अलग-अलग जगह की जरूर हैं। और ऐसी अनेकों घटनाएँ है, कहाँ तक बतायीं जाएँ। पर हर जगह सामाजिक मानसिकता एक जैसी है — जाति से ऊपर उठने की सज़ा अपमान है। 


क्या हिंदू धर्म ओबीसी और दलितों का ‘धार्मिक घर’ है?

यह सवाल अब ज़रूरी हो गया है। क्या वास्तव में हिंदू धर्म वंचित समाज का धार्मिक ठिकाना है? जब मंदिरों में उनका प्रवेश रोका जाता है, जब कथावाचन से उन्हें रोका जाता है, जब उन्हें पूजा-पाठ के लिए अपवित्र माना जाता है — तो यह कैसा धर्म है?

क्या हमें एक ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जो सम्मान नहीं दे सके? क्या आस्था का मतलब अपमान झेलना है?


संविधान की चेतावनी: समानता केवल कागज़ पर नहीं चलती

भारतीय संविधान हर नागरिक को धर्म का पालन करने, उसे प्रचारित करने और धार्मिक गतिविधियों में भाग लेने की स्वतंत्रता देता है। लेकिन जब संविधान की आत्मा को समाज कुचल देता है, तो वह कानून, किताबों और काग़ज़ों में कैद होकर रह जाता है।

इटावा की घटना संविधान के अनुच्छेद 25 का खुला उल्लंघन है, और यह स्पष्ट करता है कि हमारे समाज में संविधान से ज़्यादा प्रभावशाली आज भी जाति है।


निष्कर्ष: जब तक जातिवादी सोच ज़िंदा है, धर्म मर गया है 

इटावा की घटना सिर्फ एक यादव कथावाचक की नहीं है। यह हर उस व्यक्ति की कहानी है जो जाति से बाहर निकलकर अपने आत्मसम्मान से जीना चाहता है। यह उन करोड़ों ओबीसी, दलित, और आदिवासी लोगों की कहानी है जो आज भी ‘समानता’ के दरवाज़े पर खड़े हैं, लेकिन भीतर प्रवेश नहीं पा सके।

अब वक्त है कि हम पूछें —
क्या ईश्वर की बातें सिर्फ ब्राह्मणों को शोभा देती हैं?
क्या कथा मंच जातीय ठेकेदारी का प्रमाणपत्र मांगते हैं?
क्या सम्मान केवल वंश पर आधारित है?

अब धर्म को जाति से मुक्त करना बेहद ज़रूरी है। पर क्या जातिवादी मानसिकता के लोग ये होने देंगे?

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