कॉलेजियम प्रणाली: न्यायिक स्वतंत्रता बनाम पारदर्शिता की चुनौती

भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक अनिवार्य आधारशिला है। यह केवल एक संवैधानिक प्रावधान नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों की सुरक्षा और सत्ता के दुरुपयोग की रोकथाम का मजबूत प्रहरी है। यही कारण है कि न्यायपालिका को अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तुलना में एक विशिष्ट और गरिमामय स्थान प्राप्त है।

लेकिन 2025 के भारत में एक बड़ा सवाल यह उठता है — क्या हमारी न्यायिक नियुक्ति प्रणाली, विशेषकर कॉलेजियम प्रणाली, आज की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं, पारदर्शिता, और जवाबदेही की कसौटी पर खरी उतर रही है?


कॉलेजियम प्रणाली: मूल स्वरूप और भूमिका

कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के तहत हुई थी, जिसमें यह व्यवस्था तय की गई कि उच्चतम और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादला न्यायपालिका के भीतर ही होगा, न कि कार्यपालिका की सिफारिश से। इस प्रणाली का उद्देश्य यह था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की राय अकेली न होकर सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सामूहिक सहमति से बने।

आज भी, CJI के नेतृत्व में पाँच सदस्यीय कॉलेजियम — जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं — उच्च न्यायिक नियुक्तियों पर अंतिम राय बनाता है। उच्च न्यायालयों के लिए भी ऐसा ही स्थानीय कॉलेजियम होता है।


2025 की पृष्ठभूमि में कॉलेजियम प्रणाली की प्रासंगिकता

पिछले वर्षों में कॉलेजियम प्रणाली को कई बार सवालों के घेरे में लाया गया है। 2024 के बाद कई अहम घटनाएं इस बहस को और तीखा बना चुकी हैं:

  • कुछ प्रमुख सिफारिशों को लेकर सरकार और कॉलेजियम के बीच बार-बार टकराव, जिनमें कुछ नामों की फाइलें महीनों तक अटकी रहीं, और दोहराने के बावजूद नियुक्तियाँ नहीं हुईं।
  • भाई-भतीजावाद और आत्म चयन (self-selection) के आरोप, जो न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को कमजोर कर रहे हैं।
  • महिला और हाशिए के वर्गों का अल्प प्रतिनिधित्व, जो 2025 में भी एक असंतुलन का दर्पण पेश करता है।

क्या NJAC समाधान था?

2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को असंवैधानिक करार दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय इस आधार पर दिया कि कार्यपालिका की भागीदारी न्यायिक स्वतंत्रता के लिए खतरा है। लेकिन अब 2025 में पुनः यह मांग उठ रही है कि एक संतुलित और पारदर्शी व्यवस्था लाई जाए — जिसमें न्यायपालिका की प्रधानता तो बनी रहे, लेकिन नियुक्तियों पर नागरिक निगरानी और प्रक्रिया की पारदर्शिता भी सुनिश्चित हो।


कॉलेजियम प्रणाली से जुड़े प्रमुख मुद्दे (2025 में)

  • पारदर्शिता की कमी: अभी भी यह स्पष्ट नहीं होता कि कोई वकील या न्यायाधीश कैसे और किन मानदंडों पर चुना गया। 2023-24 में RTI के अंतर्गत कई याचिकाओं के जवाब भी अपूर्ण रहे।

  • रिक्त पदों की बढ़ती संख्या: न्यायपालिका में हजारों मामले लंबित हैं, लेकिन कॉलेजियम द्वारा नियुक्तियों की रफ्तार बहुत धीमी है।

  • विविधता की कमी: 2025 तक भी उच्च न्यायालयों में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व नगण्य है। महिलाओं की संख्या भी बहुत कम है।

  • सदस्यों के बीच असहमति: हाल ही में कई CJI के कार्यकाल में कॉलेजियम के भीतर मतभेद खुलेआम सामने आए हैं, जिससे नियुक्ति प्रक्रिया लंबित होती गई।


समाधान की दिशा: 2025 की संभावित राह

  • स्थायी न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना: एक ऐसा स्वतंत्र और संवैधानिक आयोग जो न्यायिक स्वतंत्रता बनाए रखते हुए नियुक्तियों की प्रक्रिया को संस्थागत रूप दे।
  • योग्यता और विविधता आधारित चयन: केवल वरिष्ठता नहीं, बल्कि सामाजिक पृष्ठभूमि, कानून के क्षेत्र में योगदान, संवैधानिक मूल्यों की समझ और न्यायिक दृष्टिकोण को भी चयन मानदंडों में जोड़ा जाए।
  • पारदर्शिता के लिए नियमित रिपोर्टिंग: कॉलेजियम को अपनी बैठकों, निर्णयों और चयन के कारणों की विस्तृत सार्वजनिक रिपोर्ट देनी चाहिए।
  • NJAC पर पुनर्विचार: न्यायपालिका और कार्यपालिका मिलकर ऐसा संशोधित आयोग तैयार करें जिसमें न्यायिक स्वतंत्रता सुरक्षित रहे, लेकिन जवाबदेही और सामाजिक प्रतिनिधित्व भी हो।
  • डिजिटल पारदर्शिता पोर्टल: 2025 के डिजिटल भारत में कॉलेजियम की सिफारिशें, प्रक्रिया की स्थिति, और नियुक्तियों से संबंधित सभी सूचना एक सार्वजनिक पोर्टल पर नियमित रूप से अपडेट होनी चाहिए।

निष्कर्ष

लोकतंत्र की आत्मा उसकी न्यायिक प्रणाली है। जब न्यायपालिका स्वतंत्र, पारदर्शी और विविधता-समर्थ होती है, तभी संविधान की आत्मा सुरक्षित रहती है। कॉलेजियम प्रणाली ने न्यायिक स्वतंत्रता को अब तक बचाया है, लेकिन अब समय आ गया है कि इसे नया स्वरूप दिया जाए — ऐसा स्वरूप जो इसे 21वीं सदी के लोकतांत्रिक आदर्शों और नागरिक अपेक्षाओं के अनुरूप बनाए।

न्याय केवल निर्णय देने का कार्य नहीं है, बल्कि एक नैतिक दायित्व है — और यह दायित्व तभी पूरा होगा जब न्यायपालिका न केवल स्वतंत्र, बल्कि जनता के प्रति भी जवाबदेह हो। 

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