गांधीवाद से आतंकवाद का अंत — क्या ये संभव है?


कुछ लोग कहेंगे कि अहिंसा से आतंकवाद नहीं रोका जा सकता। लेकिन जरा सोचिए — गांधीवाद किस बात पर ज़ोर देता है?
समानता पर,
संवाद पर,
करुणा पर,
– और सबसे ज़रूरी, आत्मशुद्धि पर।

जब हम गांधीवादी रास्ता अपनाते हैं, तो हम न केवल अपने भीतर बदलाव लाते हैं, बल्कि सामने वाले के हृदय को भी छूने की कोशिश करते हैं। किसी बंदूकधारी से लड़ना आसान है, लेकिन किसी की सोच को बदलना ही असली क्रांति है।

आज जब दुनिया हिंसा, घृणा और वैमनस्य की आग में जल रही है, तब गांधीवाद की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। एक तरफ आतंकवाद है, जो मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभरा है, और दूसरी तरफ गांधीवाद है, जो प्रेम, शांति और सत्य का प्रतीक है। यह लेख केवल दो विचारधाराओं की तुलना नहीं, बल्कि एक आत्ममंथन है कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं — नफ़रत की ओर या मानवता की ओर?

आतंकवाद केवल बम और बंदूक तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक मानसिकता है — एक विकृति, जो अन्याय, भेदभाव और प्रतिशोध से जन्म लेती है। आतंकवादियों की विचारधारा 'डराओ, बांटो और राज करो' की होती है। वे समाज को विभाजित करके अपने मकसद को साधते हैं। दूसरी ओर, गांधीवाद 'जोड़ो, समझो और बदलो' की सोच रखता है। गांधीजी ने कभी भी हिंसा को समाधान नहीं माना। उनके अनुसार, यदि कोई गलत है, तो उसे मारने से नहीं, समझाने से बदला जा सकता है।

अब प्रश्न उठता है — क्या आज के समय में, जब आतंकवादी संगठन हाईटेक हथियारों और तकनीक से लैस हैं, गांधीवाद जैसा 'शांत' विचार उन्हें रोक सकता है? इसका उत्तर है — हाँ, यदि हम गांधीवाद को केवल किताबों तक सीमित न रखें। आतंकवाद की जड़ है – घृणा और हाशिए पर डालने की सोच। गांधीवाद इन दोनों के खिलाफ है। गांधीजी ने हमेशा वंचितों, शोषितों और अलग-थलग पड़े लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने की बात की। उन्होंने जाति, धर्म और रंगभेद के खिलाफ आवाज़ उठाई और सबको गले लगाने का रास्ता दिखाया।

अगर हम गांधी के सिद्धांतों को अपनाते हैं — जैसे कि अहिंसा, सत्याग्रह, सर्वधर्म समभाव, और स्वावलंबन — तो आतंकवाद की सबसे बड़ी ताकत, यानी नफरत, को हम कमजोर कर सकते हैं। यह रास्ता आसान नहीं है, लेकिन सबसे टिकाऊ है। एक उदाहरण देखिए — दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने दशकों की जेल के बाद भी बदले का नहीं, बल्कि माफ़ी और संवाद का रास्ता चुना। और यही रास्ता उन्हें विश्व नेता बना गया। यह प्रेरणा उन्हें गांधी से मिली थी। क्या यह गांधीवाद की शक्ति नहीं है?

आतंकवाद के खिलाफ असली लड़ाई मैदान में नहीं, बल्कि विचारों में है। हमें समाज में ऐसा माहौल बनाना होगा जहाँ किसी को यह महसूस न हो कि उसके साथ अन्याय हो रहा है, या वह उपेक्षित है। शिक्षा, संवाद और समान अवसर देने से हम एक ऐसी ज़मीन तैयार कर सकते हैं जहाँ आतंकवाद की विचारधारा पनप ही न सके। स्कूलों में गांधीवाद की शिक्षा, सोशल मीडिया पर प्रेम और करुणा की बातें, और शासन में पारदर्शिता — ये सभी मिलकर एक गांधीवादी समाज की नींव रख सकते हैं।

गांधीवाद कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि आत्मबल का प्रतीक है। आतंकवाद की हिंसा जब लोगों को थकाने लगती है, तब गांधी का शांत चेहरा उन्हें उम्मीद देता है। अगर हम सच में चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ी नफ़रत नहीं, प्रेम सीखे; हिंसा नहीं, संवाद सीखे — तो हमें गांधी को फिर से जीवित करना होगा, अपने व्यवहार, शिक्षा और शासन में।

लेकिन जब अहिंसा पर हिंसा भारी हो जाए — तब क्या?

यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि जब सामने वाला सिर्फ हिंसा ही समझता हो, तब क्या केवल शांति, संयम और प्रेम की भाषा काम आएगी? अगर दुश्मन सबको मार ही डाले, तो क्या सिर्फ सत्य और करुणा से उसे रोका जा सकता है? यह प्रश्न भावुक नहीं, व्यावहारिक है — और इसका जवाब भी उतना ही व्यावहारिक होना चाहिए।

गांधीजी कभी भी इस बात से इनकार नहीं करते थे कि अहिंसा कठिन है। बल्कि उन्होंने बार-बार कहा कि "अहिंसा कायरों का रास्ता नहीं है।" उन्होंने यह भी स्वीकारा कि "यदि सामने कोई हिंसक ताकत हो जो केवल तबाही चाहती हो, और हमारे पास कोई दूसरा उपाय न बचे — तब आत्मरक्षा के लिए न्यूनतम प्रतिरोध आवश्यक हो सकता है।" लेकिन यह भी स्पष्ट किया कि वह प्रतिरोध नफरत से नहीं, विवेक से आना चाहिए।

गांधी का मूल संदेश यह नहीं था कि आप जान बचाने के लिए कुछ न करें, बल्कि यह था कि हिंसा को अंतिम उपाय नहीं, अंतिम मजबूरी माना जाए। आज की दुनिया में जब आतंकी संगठनों का मकसद केवल संहार है, तो उन्हें सिर्फ विचारों से नहीं, व्यवस्थागत उपायों से भी रोका जाना ज़रूरी है — जैसे सुरक्षा, खुफिया नेटवर्क, कानून व्यवस्था आदि। लेकिन जब यह सब हो भी जाए, तब भी आतंकवाद की विचारधारा को तोड़ने का काम गांधीवाद ही कर सकता है।

हिंसा से आतंकवाद का सिर काटा जा सकता है, लेकिन उसकी जड़ नहीं। जड़ कटे बिना पेड़ फिर से उग आता है। आतंकवाद को जड़ से खत्म करने का मतलब है — लोगों के मन से नफ़रत, असुरक्षा और प्रतिशोध की भावना खत्म करना। यह केवल बंदूक नहीं, बल्कि विश्वास और संवाद से ही संभव है। और यही गांधीवाद की असली शक्ति है।

इसलिए, जब अहिंसा पर हिंसा भारी पड़ती है, तब भी गांधीवाद हमें यही सिखाता है कि अपने सिद्धांतों से डिगे बिना विवेकपूर्ण रक्षा करें, लेकिन उस रक्षा में भी इंसानियत बनी रहनी चाहिए। क्योंकि अगर हम भी वही बन जाएं जो हमसे लड़ रहा है — तो फिर फर्क क्या रह जाएगा?

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