यह लेख तिरुपति बालाजी मंदिर के संदर्भ में उसी ऐतिहासिक अन्याय को उजागर करने का एक प्रयास है, जहाँ बौद्ध परंपरा और प्रतिमाओं को क्रमशः समाप्त कर एक ब्राह्मणिक देवता के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया।
बौद्ध धर्म और अशोक का भारत:
मौर्य सम्राट अशोक (268–232 ईसा पूर्व) के समय में भारत बौद्ध धर्म का वैश्विक केंद्र बन चुका था। लाखों की संख्या में बौद्ध विहार, स्तूप और बुद्ध प्रतिमाएँ बनवायी गईं। अशोक ने बौद्ध धर्म को राज्यधर्म का दर्जा दिया और अहिंसा, समानता व वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया।
दक्षिण भारत में भी बौद्ध धर्म व्यापक रूप से फैला। नागार्जुनकोंडा, अमरावती, कन्यकुमारी, तिरुनेलवेली, और खुद तिरुपति क्षेत्र में बौद्ध विहार और मूर्तियाँ मौजूद थीं।
ब्राह्मणिक प्रतिक्रिया और बौद्ध स्थलों का दमन:
मौर्य वंश के पतन के बाद ब्राह्मणों ने धीरे-धीरे राज्य सत्ता के सहयोग से बौद्ध स्थलों पर कब्जा करना आरंभ किया। बौद्ध भिक्षुओं की हत्याएँ, विहारों का विध्वंस और प्रतिमाओं की तोड़फोड़ आम हो गई।
इतिहासकार डी. डी. कोसंबी, राहुल सांकृत्यायन और डॉ. आंबेडकर ने इस धार्मिक हिंसा का विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया है। कई बौद्ध प्रतिमाओं को या तो तोड़ दिया गया या उन्हें नए रूप में ढाल कर ब्राह्मणिक देवताओं में बदल दिया गया। यही तिरुपति बालाजी के साथ भी हुआ।
तिरुपति बालाजी: एक बौद्ध स्थल?
तिरुपति बालाजी मंदिर वर्तमान में विष्णु के रूप वेंकटेश्वर को समर्पित एक अत्यंत समृद्ध मंदिर है, जहाँ प्रतिदिन करोड़ों की चढ़ावा आता है। परंतु इसके मूल में एक गहरी ऐतिहासिक परत छिपी हुई है:
1. मूर्ति की बनावट:
तिरुपति की मूर्ति की दो ऊपरी भुजाएँ, जिनमें शंख और चक्र हैं, मूल मूर्ति का हिस्सा नहीं हैं। उन्हें बाद में जोड़ा गया।
मूर्ति की मुद्रा 'वरद' और 'अभय' है — जो बौद्ध मूर्तियों की विशेषता है, विशेष रूप से बोधिसत्व पद्मपाणि की।
चेहरे पर विशेष प्रतीक से मस्तक, बड़ी आँखें और नाक को ढँका गया है, जैसे असली स्वरूप छुपाने का प्रयास किया गया हो।
2. आभूषणों व वस्त्रों से ढँका शरीर:
दक्षिण भारतीय परंपरा में अलंकरण सामान्य है, पर तिरुपति में यह आभूषणों की अधिकता मूल पहचान को छिपाने का कार्य करते हैं।
3. शास्त्रसम्मत नामों की अनुपस्थिति:
मंदिर की मूर्तियाँ आगमिक मान्यताओं के अनुसार नहीं हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि ये मूर्तियाँ प्रारंभिक रूप से हिन्दू नहीं थीं।
4. सिंहों की उपस्थिति और गरुड़ का अभाव:
विष्णु के वाहन गरुड़ के बजाय मंदिर में सिंहों की उपस्थिति बौद्ध चिन्ह है। बुद्ध को 'शाक्य सिंह' कहा गया है।
5. मुण्डन परंपरा (Tonsure):
बौद्ध परंपरा में प्रव्रज्या और उपसंघ प्रवेश से पहले सिर मुंडवाया जाता है। हिन्दू परंपरा में मुण्डन अमंगल माना जाता है। तिरुपति में सिर मुंडवाने की परंपरा बौद्ध प्रभाव को दर्शाती है।
6. रथयात्रा का बौद्ध स्रोत:
फा-हिएन और ह्वेनसांग ने जिक्र किया है कि बौद्ध विहारों में रथों पर बुद्ध और बोधिसत्वों की प्रतिमाओं की शोभायात्रा होती थी। वर्तमान रथयात्रा उसी परंपरा की विरासत है।
7. 966 ई. तक नियमित पूजा का अभाव:
अगर यह स्थल वास्तव में विष्णु को समर्पित होता, तो उसकी पूजा की परंपरा अनवरत होती। परंतु 966 ई. तक किसी नियमित पूजा का उल्लेख नहीं मिलता।
अन्य परिवर्तित बौद्ध स्थल:
तिरुपति अकेला उदाहरण नहीं है। निम्नलिखित मंदिर भी मूलतः बौद्ध स्थल माने जाते हैं:
पुरी का जगन्नाथ मंदिर
पंढरपुर का विट्ठल मंदिर
सबरीमाला का अय्यप्पा मंदिर
श्रीशैलम और द्राक्षाराम
इन सभी स्थलों पर सिंह प्रतीक, बुद्धमुद्राएँ, दीर्घकर्ण (लंबे कान), और मुण्डन जैसे बौद्ध चिह्न पाये जाते हैं।
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की चेतावनी:
डॉ. आंबेडकर ने कहा था: "इतिहास से यदि हम न सीखें, तो भविष्य भी हमारा नहीं होगा।"
बौद्ध स्थलों पर ब्राह्मणिक अधिग्रहण सिर्फ धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक दासता का प्रतीक है। यह भारत की मूल बहुजन परंपरा को मिटाकर उसे एक मिथकीय ढाँचे में कैद करने की कोशिश है।
निष्कर्ष:
तिरुपति बालाजी एक धार्मिक स्थल से कहीं बढ़कर भारत की खोई हुई बौद्ध परंपरा का जीवित प्रमाण है। बौद्ध धर्म की समतामूलक, वैज्ञानिक और तर्कनिष्ठ संस्कृति को पुनः स्थापित करने के लिए इस तरह की ऐतिहासिक सच्चाइयों को उजागर करना जरूरी है।
यह समय है कि हम अपनी जड़ों को पहचानें, और उन झूठी आस्थाओं से मुक्त हों जो हमारी मूल चेतना पर आरोपित की गई हैं।
यह केवल मंदिर का प्रश्न नहीं है, यह हमारी पहचान और इतिहास की पुनर्स्थापना का प्रश्न है। जाँच किया जाना बेहद ज़रूरी है, तभी वास्तविकता सामने आ सकेगी।