
हम अकसर पर्यावरण की बात करते हुए वनों की कटाई, प्रदूषण, और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों पर फोकस करते हैं, लेकिन ये सवाल कम ही पूछा जाता है कि “पर्यावरणीय संसाधनों तक किसकी पहुंच है?” और “प्रदूषण का सबसे ज़्यादा बोझ कौन उठाता है?” जब इन सवालों के जवाब ढूंढते हैं, तो अक्सर एक ही वर्ग सामने आता है — दलित समुदाय।
कचरे के ढेर पर ज़िंदगी: शहरी भारत में दलितों की उपेक्षित हकीकत
हमारे मेट्रो शहरों में हाई-राइज़ बिल्डिंग्स और मॉल्स की आड़ में ऐसी बस्तियाँ भी हैं जो सड़े हुए कचरे, बहते सीवेज और जहरीली हवा के बीच पल रही हैं। इनमें बड़ी संख्या में दलित परिवार रहते हैं — न अपनी पसंद से, बल्कि मजबूरी में। दिल्ली के भलस्वा लैंडफिल से लेकर मुंबई के देवनार तक, ये लोग कचरे के ढेर के पास जीने और पलने को मजबूर हैं।
यह केवल आर्थिक मजबूरी नहीं है, यह सामाजिक हाशिए पर धकेले जाने की लंबी प्रक्रिया का नतीजा है। यहाँ स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं, साफ पानी नहीं है, और सबसे बड़ी बात — सम्मान नहीं है।
मैन्युअल स्केवेंजिंग: कानून भले बंद करे, समाज आज भी ढोता है
कागज पर मैन्युअल स्केवेंजिंग भारत में प्रतिबंधित है। लेकिन ज़मीन पर दलित पुरुषों और महिलाओं को आज भी खुले हाथों से गटर और सेप्टिक टैंक में घुसते देखना आम बात है। यह सिर्फ शारीरिक श्रम नहीं, मानसिक हिंसा भी है। कई बार लोग इसमें इसलिए फँसे रहते हैं क्योंकि यही एक काम है जो “उनकी जाति के लिए स्वीकार्य” समझा जाता है।
एक अध्ययन के अनुसार, भारत में मैन्युअल स्केवेंजिंग करने वालों में लगभग 95% से अधिक दलित समुदाय से आते हैं। इससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएं — जैसे त्वचा रोग, संक्रमण, साँस की बीमारियाँ — तो हैं ही, लेकिन उससे भी बड़ा संकट है — सामाजिक बहिष्कार और मानसिक आघात।
वन और जल संसाधनों तक असमान पहुंच: विकास किसका, वंचना किसकी?
सरकारी दस्तावेज़ों में सबको समान जल अधिकार मिलते हैं। लेकिन जमीनी सच्चाई ये है कि कई गांवों में आज भी दलितों को सार्वजनिक कुओं या नलों से पानी लेने से रोका जाता है। कई बार उन्हें जानबूझकर दूषित या अंतिम छोर पर बचे जल स्रोतों तक सीमित कर दिया जाता है। ये सिर्फ भेदभाव नहीं, धीरे-धीरे की जाने वाली हत्या है।
वन क्षेत्रों में भी दलित समुदायों को अधिकार देने के कानून हैं (जैसे Forest Rights Act), लेकिन ज़्यादातर जगह इन पर अमल नहीं होता। कई दलित आदिवासी समुदाय अपने परंपरागत संसाधनों से बेदखल कर दिए गए हैं।
जलवायु परिवर्तन और जातिवाद: दोहरी मार
आज जलवायु परिवर्तन हर देश की चिंता है, लेकिन इसका असर भी सभी पर बराबर नहीं होता। भारत में सूखा, बाढ़ या लू जैसे जलवायु संकटों से सबसे पहले और सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले समुदाय वही होते हैं जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं।
दलित किसान जो पहले ही सीमित ज़मीन या भूमिहीन हैं, जल संकट और मौसम में अनिश्चितता के कारण खेती नहीं कर पाते। न उनके पास बीमा होता है, न सरकारी मदद, और न सामाजिक सुरक्षा।
वातावरणीय न्याय और दलित आंदोलन: एक नया मोर्चा
बीते कुछ वर्षों में “पर्यावरणीय न्याय” (Environmental Justice) की धारणा भारत में थोड़ी जगह बना रही है, लेकिन यह अभी भी मुख्य रूप से जातिवादी संरचनाओं को केंद्र में नहीं लाती। जब पर्यावरण संरक्षण की बात होती है तो अक्सर इसे "हरित" नजर से देखा जाता है, लेकिन यह उतना ही सामाजिक सवाल है जितना कि पारिस्थितिकीय।
इसलिए अब ज़रूरत है कि पर्यावरणीय आंदोलनों में दलित आवाज़ों को भी शामिल किया जाए। बिना उनकी भागीदारी के, कोई भी हरित विकास अधूरा है।
कुछ ठोस समाधान: बातें नहीं, बदलाव चाहिए
- कानून का सही क्रियान्वयन: मैन्युअल स्केवेंजिंग कानून का उल्लंघन करने वाले संगठनों और नगर निकायों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
- सुरक्षित रोज़गार विकल्प: दलित समुदायों के लिए शिक्षा, कौशल विकास, और सम्मानजनक नौकरियों के अवसर सुलभ करवाना अनिवार्य है।
- समान आवास और बुनियादी सुविधाएं: डंपिंग यार्ड के पास बसे दलित परिवारों को साफ, सुरक्षित और सुविधाजनक आवास में स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
- पर्यावरणीय न्याय के लिए नीतियाँ: पर्यावरण नीति निर्माण में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए, और उन्हें पर्यावरण संरक्षण योजनाओं का सक्रिय हिस्सा बनाया जाए।
- सामाजिक जागरूकता: समाज के भीतर जातिवाद से जुड़े पर्यावरणीय भेदभाव को पहचानने और खत्म करने के लिए स्कूलों, मीडिया, और सिविल सोसाइटी में व्यापक जागरूकता फैलाना ज़रूरी है।
निष्कर्ष: जब तक हवा, पानी और ज़मीन पर जाति का असर रहेगा, विकास अधूरा रहेगा
भारत का सपना “सबका साथ, सबका विकास” तब तक खोखला रहेगा जब तक हम जातिगत पर्यावरणीय अन्याय की बात नहीं करेंगे। दलितों को केवल समान अवसर देना ही काफी नहीं है — उन्हें सम्मान, सुरक्षा और पर्यावरणीय संसाधनों तक समान पहुंच मिलनी चाहिए।
एक देश की असली तरक्की तब होती है जब उसका सबसे कमजोर नागरिक भी न केवल जीवित रह सके, बल्कि गरिमा से जी सके।