देश की राजधानी दिल्ली—जहाँ संसद की भव्य इमारतें हैं, जहाँ से संविधान की बात होती है, और जहाँ से हर नागरिक के लिए न्याय का वादा किया जाता है—वहीं आज उसी दिल्ली की गलियों में इंसानियत को कुचला जा रहा है। झुग्गियों और इन अवैध के नाम पर तोड़े जाने वाले मकानों में रहने वाले हज़ारों परिवारों के सिर से छत छीनी जा रही है। बुलडोज़र घरों पर नहीं, उन अरमानों पर चल रहा है जो लोगों ने सालों-साल जोड़कर बनाए थे।
“जहाँ झुग्गी वहाँ मकान”—ये वादा कभी चुनावी मंचों से दिया गया था। लोगों ने भरोसा किया, वोट दिया, भविष्य का सपना देखा। लेकिन आज हकीकत यह है कि उसी झुग्गी पर बुलडोज़र चल रहा है। बिना पूर्व सूचना, बिना वैकल्पिक व्यवस्था, और बिना यह समझे कि जिन दीवारों को गिराया जा रहा है, वहाँ सिर्फ ईंट और सीमेंट नहीं थे, वहाँ बच्चे थे, बूढ़े माता-पिता थे, गर्भवती महिलाएँ थीं, किताबें थीं, दवाइयाँ थीं, और जीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ थीं।
दिल्ली के कालकाजी, जंगपुरा, मद्रासी कैम्प, ओखला, नरेला, शाहदरा जैसे क्षेत्रों में यह कहानी एक जैसी है—सुबह उठते ही चारों ओर पुलिस बल, एमसीडी की गाड़ियाँ, जेसीबी मशीनें और एक आदेश: "सब कुछ समेट लो, अब ये ज़मीन खाली करनी है।"
क्या कोई सरकार इतनी बेरहम हो सकती है? क्या प्रशासन में संवेदनशीलता की कोई जगह नहीं बची?
बुलडोज़र चलने से पहले जब महिलाएँ प्रशासन के अधिकारियों के सामने हाथ जोड़ती हैं, जब बच्चे अपने स्कूल बैग को सीने से लगाकर बिलखते हैं, जब बुज़ुर्गों की आँखों में 40-50 साल पहले बनवाया गया एक छोटा सा कमरा डूबता है—तब लोकतंत्र की आत्मा कराहती है।
इनमें से कई परिवार ऐसे हैं जिन्होंने दिल्ली को अपने खून-पसीने से बसाया। निर्माण मज़दूरों ने flyover बनाए, रात्रि प्रहरी बने, घरों में बर्तन धोए, सड़कों की सफाई की। लेकिन आज उन्हें इस कदर बेदखल किया जा रहा है जैसे वो कभी इस शहर का हिस्सा ही नहीं थे।
कुछ इलाकों में पुनर्वास के नाम लोगों को दूरदराज़ इलाकों में भेजा गया है वो भी केवल कुछ को, सभी को नहीं, जहाँ न तो रोज़गार है, न स्कूल, न अस्पताल। कई को अब तक कोई पुनर्वास नहीं मिला। जिन्हें मिला भी, वे वहाँ तक नहीं पहुँच पाए क्योंकि रोज़ी-रोटी छूट गई। शहर में काम करने वाले लोग शहर से दूर कर दिए गए।
यह सिर्फ़ बेघर होने की कहानी नहीं है, यह पहचान छिन जाने की त्रासदी है।
आज जब घर गिराए जाते हैं, तब केवल दीवारें नहीं गिरतीं—साथ में गिरता है भरोसा। उस न्याय प्रणाली से जो कहती है कि हर नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार है। उस प्रशासन से जो कहता है कि हम गरीबों के साथ हैं। उस समाज से जो मानवीयता की बात करता है।
यहाँ बिजली का मीटर लगा था, राशन कार्ड बना था, वोटर ID बनी थी, तब ये वैध कैसे थे? जब नगर निगम ने यहाँ से टैक्स लिया, तब इन्हें कानूनी माना गया। अब अचानक सब कुछ कैसे अवैध हो गया?
अगर अतिक्रमण हटाना ज़रूरी है, तो उससे पहले पुनर्वास क्यों नहीं? क्यों नहीं कोई मानवीय नीति बनी जिसमें लोगों को वक़्त दिया जाता, बातचीत की जाती, और एक सम्मानजनक समाधान निकाला जाता? क्या विकास का मतलब सिर्फ़ ऊँची इमारतें हैं?
यह कैसा विकास है जिसमें गरीबों के घर तोड़े जाते हैं, लेकिन उनके लिए नई ज़िंदगी का कोई रास्ता नहीं छोड़ा जाता?
यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें सरकार खुद अपने नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों को मिट्टी में मिला देती है?
यह कैसा संविधान है जहाँ 'जीवन और गरिमा' का अधिकार किताबों तक सीमित रह गया है? असल बात को समझा जाए तो आप जान सकते हैं कि इन मकानों में कौन लोग रहते होंगे? इनमें सबसे ज़्यादा संख्या उन्हीं दलित और पिछड़ों की है जो सदियों से अपने वजूद को तलाश रहे हैं।
दिल्ली में जो हो रहा है वह केवल अतिक्रमण विरोधी अभियान नहीं है। यह एक सामाजिक और नैतिक विफलता है। यह उस व्यवस्था की विफलता है जो नागरिकों के दुःख से अधिक नालों की सफाई की चिंता करती है।
यदि यह सब कुछ इसी तरह चलता रहा, तो बहुत जल्द ये शहर सिर्फ़ अमीरों का गढ़ बन जाएगा और मेहनतकश जनता—जिसने इसे बसाया—शहर के बाहर धकेल दी जाएगी, भूख, बेबसी और अस्मिता के मलबे में दबा दी जाएगी।