“फुले” की सेंसरशिप: जब क्रांति से डरने लगी व्यवस्था


कभी एक फिल्म समाज को आइना दिखाने का ज़रिया मानी जाती थी। आज वही फिल्म जब किसी दलित या बहुजन नायक की सच्चाई सामने लाती है, तो उसे खतरा मान लिया जाता है। ‘फुले’ फिल्म को लेकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) की जो 12 सेंसर कटौती सामने आई हैं, वे सिर्फ दृश्य या संवाद नहीं काट रही हैं — वे इतिहास के वो पन्ने फाड़ रही हैं जिन्हें पढ़कर हजारों युवा जाग सकते थे। यह सिर्फ सेंसरशिप नहीं, यह स्मृति विलोपन है। यह उस आवाज़ की हत्या है जिसने कभी पूछा था: "क्या इंसान केवल इसलिए नीचा है क्योंकि वो जन्म से ब्राह्मण नहीं?"

जब जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले की फिल्म से 'महार', 'शूद्र', 'पेशवाई', '3000 साल की गुलामी', और 'मनुस्मृति' जैसे शब्द काटे गए, तब ये स्पष्ट हो गया कि हमारी व्यवस्था को ज्ञान नहीं, सच्चाई से डर लगता है। जो बाते किताबों में थीं, अब जब परदे पर आईं, तो उन्हें "संवेदनशील" कहकर हटा दिया गया। सवाल ये है कि संवेदनशील कौन है? इतिहास या वो सत्ता जो खुद को सच्चाई के ऊपर बैठा मानती है?


फुले की क्रांति: शिक्षा से इन्कलाब, इज्ज़त से बराबरी

जोतिबा फुले कोई लेखक मात्र नहीं थे, वे एक आंदोलन थे। सावित्रीबाई फुले केवल शिक्षिका नहीं थीं, वे उस युग की रोशनी थीं, जो अंधेरे में लिखी जाती थी। उन्होंने सवाल उठाए थे — और यही उनका "अपराध" था। उन्होंने पूछा था, क्यों एक शूद्र लड़की स्कूल नहीं जा सकती? क्यों एक 'महार' किसान को जमीन नहीं मिलती? क्यों स्त्री को देवी मानने वाला समाज उसे पढ़ने से रोकता है?

‘फुले’ फिल्म उसी इतिहास को चित्रित करती है, जिसे आज की ब्राह्मणवादी सोच भूल जाना चाहती है। यही वजह है कि फिल्म से कटवाए गए शब्द ‘महार’, ‘मनुस्मृति’, ‘शूद्र’, और ‘3000 साल की गुलामी’ नहीं हैं — असल में यह शब्द प्रश्नवाचक चिन्ह हैं उस व्यवस्था पर जो अब भी जाति के भीतर सुरक्षा ढूंढती है।

फुले की क्रांति किताबों में सुरक्षित रह सकती है, लेकिन जब वह परदे पर आती है — जब वह दृश्य बनती है, जब वह भीड़ को दिखने लगती है — तब वह सत्ता को असहज करती है।


CBFC का डर: सवर्ण सोच की सुरक्षा का परदा

CBFC ने जो संवाद हटाए, वे दरअसल सवाल थे।
"क्या शूद्रों को झाड़ू बांधकर चलना चाहिए?"
"क्या 3000 साल की गुलामी सच्चाई नहीं है?"
"क्या मनुस्मृति आज भी हमारे संविधान के समानान्तर चलती है?"
लेकिन इन सवालों को हटाना, उन्हें खत्म नहीं करता — वे हवा में गूंजते रहते हैं, और अब और तेज़ हो गए हैं।

CBFC की दलील रही कि ये संवाद “समाज में तनाव” पैदा कर सकते हैं। लेकिन जब वही बोर्ड ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘केरल स्टोरी’, ‘तान्हाजी’ जैसी फिल्मों को बिना रोक-टोक पास कर देता है — जिनमें मुस्लिम विरोध, इतिहास के तोड़े गए तथ्य और नफरत भरी भावनाएं स्पष्ट होती हैं — तब यह दोहरा मापदंड दिखता है। एक तरफ, ब्राह्मणवाद के गौरव की फिल्में चल सकती हैं, दूसरी तरफ, शूद्रों की चेतना की फिल्म काटी जाती है।

यह डर नहीं, बल्कि सत्ता का संरक्षित अंहकार है। CBFC अगर सचमुच निष्पक्ष होता, तो ‘फुले’ फिल्म नहीं, वह ब्राह्मणवादी चेतना सेंसर करता, जो आज भी हर कुर्सी के नीचे जाति का कील ठोकती है।


बहुजन विरोध: जब संघर्ष पर आपत्ति होती है

जो सबसे चिंताजनक बात है, वह ये कि ‘फुले’ फिल्म पर आपत्ति सवर्ण संगठनों की ओर से आई — उन संगठनों की जो हर बार बहुजन आवाज़ को ‘विघटनकारी’ करार देते हैं। उनके अनुसार, महार, मंग, शूद्र, और पेशवाई जैसे शब्दों का उपयोग समाज को तोड़ता है।

क्या सच बोलना तोड़ना है?

क्या इतिहास बताना विघटन है?

या फिर वह सिर्फ विघटन तभी बनता है जब वह ब्राह्मणवाद को नंगा कर दे?

हमने यह भी देखा है कि हर बार जब कोई दलित, पिछड़ा, या आदिवासी चरित्र पर आधारित कहानी सामने आती है, तो उसे ‘रिवाइज’, ‘कट’, या ‘बैन’ कर दिया जाता है। यह सिलसिला नया नहीं है — यह वह पुरानी परंपरा है जो कहती है: “वो बोलें नहीं, वो सिर्फ सहें।”


सेंसरशिप के पीछे की राजनीति: सिनेमा से भी डरते हैं ये लोग

फुले की फिल्म में काटे गए शब्द केवल ऐतिहासिक तथ्य नहीं थे। वे दरअसल बहुजन चेतना के प्रतीक थे। 'महार' कोई जाति नहीं, वह गुलामी के खिलाफ खड़े होने की पहचान है। 'मनुस्मृति' कोई ग्रंथ नहीं, वह शोषण की वसीयत है। '3000 साल की गुलामी' कोई अतिशयोक्ति नहीं, वह वो हकीकत है जिसमें आज भी लाखों लोग जिए जा रहे हैं।

जब इन्हें हटाया गया, तब यह सिर्फ फिल्म का रूप नहीं बदला — यह बताया गया कि दलितों की चेतना पर आज भी सेंसरशिप लागू है।

इसी के समानांतर, ऐसी दर्जनों फिल्में आज भी धड़ल्ले से पास हो जाती हैं जो सवर्ण गौरवगाथा को बिना चुनौती दिखाती हैं। यानी जो नफरत फैलाए, वह “स्वतंत्रता”; जो बराबरी मांगे, वह “विवादास्पद।”

यह वही मानसिकता है जिसने कभी फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ को भारत के पाठ्यक्रम में नहीं आने दिया। यह वही सत्ता है जिसने अंबेडकर को महात्मा नहीं, सिर्फ ‘डॉक्टर’ कहकर सीमित किया।


फिल्म नहीं, ये इतिहास की चेतावनी थी

'फुले' फिल्म से डर इसलिए है क्योंकि वह चेतावनी है — वह याद दिलाती है कि कभी एक जोतिबा फुले था जिसने अपनी पत्नी को पढ़ाया, एक सावित्रीबाई थी जिसने लड़कियों को स्कूल ले जाने के लिए पत्थरों और गोबर की बौछारें झेली।

यह फिल्म बताती है कि आज जिस संविधान पर आप गर्व करते हैं, उसका बीज उन्हीं फुलों ने बोया था।

ये सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक आइना है — और आइने में झांकने की हिम्मत ब्राह्मणवाद के पास कभी नहीं रही।


बहुजन सिनेमा की हत्या: आवाज़ को मीठा बनाओ या बंद करो

आज भी अधिकतर फिल्मों में दलित-पिछड़ा चरित्र या तो मज़ाक होता है या सहानुभूति का पात्र। जब वह नायक बनता है — जब वह मंच पर खड़ा होकर पूछता है, "तुम्हारी जात क्या है?" — तब उसे खामोश कर दिया जाता है।

‘फुले’ इस खामोशी को तोड़ती है। वह कहती है कि हम सिर्फ पीड़ित नहीं हैं, हम इतिहासकार भी हैं, लेखक भी हैं, शिक्षक भी हैं, और नायक भी।

लेकिन फिल्म बोर्ड को ये मंजूर नहीं — वे चाहते हैं, “तुम बोलो लेकिन मीठा बोलो। तुम दिखो लेकिन पसीने से नहीं, गुलाबजल से।”

बहुजन कला को सजावट नहीं चाहिए — उसे क्रांति चाहिए।


निष्कर्ष: जब तक सेंसरशिप जाति आधारित है, तब तक सिनेमा भी स्वतंत्र नहीं

‘फुले’ फिल्म पर हुई सेंसरशिप हमें एक बार फिर याद दिलाती है कि जाति व्यवस्था सिर्फ गांवों में नहीं, बोर्डरूम्स में भी ज़िंदा है। वो सिर्फ मंदिरों में प्रवेश से नहीं रोकती, बल्कि परदे पर दिखने से भी रोकती है।

यह सेंसरशिप किसी दृश्य को नहीं काट रही — यह हमारी उम्मीदों को काट रही है। हमारी चेतना को। हमारे नायकों को।

फुले और सावित्रीबाई को चुप नहीं कराया जा सका था, इसलिए आज भी वे जीवित हैं। उनके विचार फिल्म में आए या किताब में, वे छुपाए जा सकते हैं, लेकिन मिटाए नहीं।

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