अक्सर बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्तियाँ ही क्यों तोड़ी जाती हैं?

भारत में मूर्तियाँ तोड़े जाने की घटनाएँ कोई नयी नहीं हैं। इतिहास में पहले बुद्ध की मूर्तियों को भी तोड़ा गया, आज वही मूर्तियाँ ज़मीन में से निकल रही हैं। सदियों से मूर्तियाँ सत्ता, पहचान और विचारधारा का प्रतीक रही हैं—और जब भी किसी को चुनौती देना होता है, तो वो पहले प्रतीकों पर हमला करता है।  लेकिन जब यह हमला बार-बार एक ही व्यक्ति की मूर्तियों पर केंद्रित हो—बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर—तो यह केवल एक मूर्ति का नहीं, एक विचार, एक चेतना और एक समुदाय के आत्मसम्मान पर हमला बन जाता है।

तो फिर यह सवाल लाजिमी हो जाता है: आख़िर क्यों सबसे ज़्यादा निशाना बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्तियों को ही बनाया जाता है?
इस लेख में हम इसी सवाल की तह तक जाएँगे।


मूर्ति तोड़ना: केवल एक अपराध नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना पर आघात

बाबा साहेब आंबेडकर केवल संविधान निर्माता नहीं थे, बल्कि वे भारत के करोड़ों वंचित, शोषित और बहिष्कृत समाज के लिए प्रकाशस्तंभ थे। उनकी मूर्ति का खंडन, केवल ईंट-पत्थर नहीं तोड़ता, वह उस पूरी चेतना को आहत करता है जो उन्होंने वर्षों की मेहनत और बलिदान से जगाई थी। जब कोई उनकी मूर्ति तोड़ता है, तो वह यह बताने की कोशिश करता है कि समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को अब भी स्वीकार नहीं किया गया है।


बाबा साहेब: जातिवादी व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़

भारत की जातिवादी व्यवस्था, हज़ारों वर्षों से सवर्ण प्रभुत्व को संस्थागत करती आई है। बाबा साहेब ने इस ढाँचे को जड़ से हिलाया। उन्होंने मनुस्मृति को जलाकर सिर्फ एक किताब नहीं, एक पितृसत्तात्मक और जातिवादी सोच को ललकारा। यह साहस आज भी कई लोगों को असहज करता है। यही वजह है कि उनकी मूर्तियाँ एक ‘टारगेट’ बन जाती हैं।


दलित आत्मसम्मान और सत्ता को चुनौती

दलित समाज में बाबा साहेब की मूर्तियाँ आत्मसम्मान और चेतना का जीवंत प्रतीक हैं। जिस मोहल्ले में उनकी प्रतिमा होती है, वहाँ दलित बच्चा भी सिर उठाकर चलता है। यह दृश्य उस मानसिकता को खलता है जो हमेशा से दलितों को दबा कर रखने की अभ्यस्त रही है। मूर्ति पर चोट असल में उस आत्मविश्वास पर हमला है जो बाबा साहेब ने इस समाज में रोपा है।


बाबा साहेब का विचार—अब हर गली, हर मन में

एक समय था जब बाबा साहेब की प्रतिमाएँ केवल विश्वविद्यालयों या संस्थानों तक सीमित थीं। लेकिन आज देश के कोने-कोने में, गांवों-बस्तियों से लेकर शहरों तक, उनकी मूर्तियाँ लगी हुई हैं। यह बात उस मानसिकता के लिए असहनीय हो जाती है जो अब भी सोचती है कि समाज में "स्थान और सम्मान" जन्म से तय होता है। जब एक दलित नायक की प्रतिमा चौराहे पर खड़ी होती है, तो वह सदियों से दबाए गए इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं, पुनर्लेखन होती है।


बाबा साहेब का विचार ही डर का कारण है

बाबा साहेब का सबसे बड़ा ‘अपराध’ यह था कि उन्होंने दलितों को सिर्फ अधिकार नहीं दिए, उन्हें जागरूक बनाया। उन्होंने कहा:

"शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।"

यह विचार अपने आप में क्रांति था। और यही विचार, आज भी उन वर्गों को भयभीत करता है जो हमेशा से सत्ता-संसाधनों पर एकाधिकार चाहते हैं। मूर्तियाँ तोड़ना इस विचार को मिटाने की नाकाम कोशिश है।


मीडिया और सत्ता की चुप्पी: मौन भी अपराध है

जब किसी अन्य राजनेता की मूर्ति टूटती है, तो राष्ट्रीय मीडिया चीख पड़ती है। लेकिन जब बाबा साहेब की मूर्तियाँ तोड़ी जाती हैं, तो अधिकांश मीडिया उसे “स्थानीय विवाद” बताकर भुला देती है। ये घटनाएं या तो रिपोर्ट ही नहीं होतीं, या उनके पीछे की जातिगत सच्चाई को छुपा दिया जाता है। इससे अपराधियों को यह संदेश मिलता है कि वे बेखौफ ऐसा कर सकते हैं—क्योंकि उनके खिलाफ समाज का ‘मुख्यधारा तंत्र’ नहीं बोलेगा।


न्याय व्यवस्था की असफलता और दलितों का अविश्वास

बहुत कम मामलों में दोषियों को सज़ा मिलती है। FIR दर्ज होती है, कुछ नामजद होते हैं, फिर केस दबा दिया जाता है। यह न्याय व्यवस्था की वह विफलता है जिसने दलितों के बीच यह भाव भर दिया है कि "हमारे नायक की मूर्ति भी सुरक्षित नहीं है।"
जब न्याय नहीं मिलता, तो आक्रोश फैलता है। यह आक्रोश लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए भी ख़तरनाक है।


प्रतिरोध और पुनर्निर्माण: मूर्तियों से आगे बढ़ती चेतना

हर बार जब बाबा साहेब की मूर्ति तोड़ी जाती है, तो दलित समुदाय न केवल उसका विरोध करता है, बल्कि और भी भव्य प्रतिमा स्थापित करता है। यह एक सांस्कृतिक प्रतिरोध बन चुका है। यह घटना हमें बार-बार याद दिलाती है कि हम केवल मूर्तियों को नहीं बचा रहे, हम अपनी अस्मिता, अधिकार और अस्तित्व की रक्षा कर रहे हैं।


अब क्या करना चाहिए?

(i) वैचारिक शिक्षा का विस्तार

बाबा साहेब को स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में केवल "संविधान निर्माता" के रूप में नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, बल्कि उनकी सामाजिक दृष्टि, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आर्थिक सोच को भी पढ़ाया जाना चाहिए।

(ii) सख्त कानून, तेज न्याय

मूर्ति तोड़ने की घटनाओं को केवल संपत्ति का नुकसान नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि इसे सांप्रदायिक एवं जातिवादी हमले के रूप में दर्ज कर न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाई जानी चाहिए।

(iii) बहुजन सांस्कृतिक आंदोलन

बाबा साहेब की मूर्तियाँ केवल पूजा का स्थान नहीं हैं। वे विचार और चेतना के केंद्र हैं। बहुजन समाज को चाहिए कि वे प्रतिमा स्थापना के साथ-साथ सार्वजनिक वाचन, चर्चा, लेखन, फिल्म और नाटक के माध्यम से बाबा साहेब के विचारों को घर-घर पहुँचाएँ।


निष्कर्ष

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की मूर्तियों को तोड़ा जाना केवल एक संगीन अपराध नहीं, बल्कि वंचित और बहुजन समाज की अस्मिता, चेतना और संघर्षशीलता पर सीधा हमला है। यह एक सुनियोजित संकेत होता है कि कुछ वर्ग अब भी बराबरी की बात से असहज हैं। यह आक्रोश, इस बात का प्रमाण है कि बाबा साहेब का विचार आज भी जीवंत है, और हक़ की लड़ाई को दिशा दे रहा है।

लेकिन यह भी सच है कि विचार कभी मूर्तियों में क़ैद नहीं होते। बाबा साहेब ने जीवनभर जिन मूल्यों की बात की—शिक्षा, संगठन और संघर्ष—वे आज हर गली, हर बस्ती, हर विद्यार्थी, हर आंदोलन में गूंज रहे हैं।

हर टूटी मूर्ति उस चेतना की गवाही है जिसे दबाया नहीं जा सकता।

और यही बाबा साहेब की सबसे बड़ी जीत है।

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