उनका बचपन राजसी वैभव और सुख-सुविधाओं से भरपूर था। शुद्धोधन ने उन्हें सांसारिक कष्टों से दूर रखने के लिए तीन अलग-अलग ऋतुओं के लिए अलग-अलग महलों का निर्माण करवाया था। उनका उद्देश्य था कि सिद्धार्थ को कभी भी जीवन की कठोरता का सामना न करना पड़े।
उन्होंने पहले एक वृद्ध व्यक्ति को देखा, जो चलने में असमर्थ था और शरीर पूरी तरह झुक चुका था। फिर उन्होंने एक रोगी व्यक्ति को देखा, जो दर्द और पीड़ा से कराह रहा था। इसके बाद उन्होंने एक मृत व्यक्ति की अर्थी देखी, जिसे लोग अंतिम संस्कार के लिए ले जा रहे थे। अंत में उन्होंने एक सन्यासी को देखा, जो शांत, गंभीर और पूर्ण रूप से आत्म-संतुष्ट दिखाई दे रहा था।
इन चार दृश्यों ने सिद्धार्थ को सोचने पर मजबूर कर दिया कि यह संसार वास्तव में क्षणभंगुर है। जीवन में केवल सुख नहीं है, बल्कि दुख, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु जैसे अमिट सत्य भी मौजूद हैं। उन्होंने यह जानने की ठानी कि इन दुखों का स्थायी समाधान क्या है।
सिद्धार्थ अब एक साधु के रूप में जीवन जीने लगे। उन्होंने विभिन्न गुरुओं से शिक्षा ली, योग, तपस्या, ध्यान के मार्ग को अपनाया। वे लगातार ज्ञान की खोज में लगे रहे, लेकिन किसी से भी उन्हें वह ज्ञान नहीं मिला जो उन्हें दुखों से मुक्ति दिला सके।
उन्होंने यह समझा कि न तो अत्यधिक विलासिता और न ही अत्यधिक कष्ट का जीवन सत्य की ओर ले जाता है। इस अनुभव के बाद उन्होंने ‘मध्यम मार्ग’ (Middle Path) का सिद्धांत अपनाया — एक संतुलित, संयमित और विवेकपूर्ण जीवन।
इस दिव्य ज्ञान से उन्होंने समझा कि जन्म, मृत्यु और दुःख का चक्र कैसे चलता है और इससे मुक्ति कैसे पाई जा सकती है। अब वे सिद्धार्थ नहीं बल्कि बुद्ध — अर्थात "बोध प्राप्त पुरुष" या "जाग्रत आत्मा" बन चुके थे।
यहां उन्होंने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग की शिक्षा दी। यही बौद्ध धर्म के मूल स्तंभ बने।
चार आर्य सत्य
- दुःख का सत्य — यह स्वीकार करना कि जीवन में दुःख अनिवार्य है। जन्म, वृद्धावस्था, रोग, मृत्यु, प्रिय से वियोग, अप्रिय से संपर्क — ये सभी दुःख हैं।
- दुःख का कारण — तृष्णा यानी इच्छाओं की अग्नि दुःख की जड़ है। जब हम किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति को पाने की लालसा करते हैं, और वह पूरी नहीं होती, तब हम दुःखी होते हैं।
- दुःख की निवृत्ति — यदि तृष्णा को समाप्त कर दिया जाए, तो दुःख भी समाप्त हो सकता है।
- दुःख निवारण का मार्ग — तृष्णा के विनाश हेतु अष्टांगिक मार्ग ही एकमात्र उपाय है।
अष्टांगिक मार्ग
- सम्यक दृष्टि — जीवन और धर्म को सही रूप से समझना।
- सम्यक संकल्प — दया, करुणा और अहिंसा के साथ जीवन जीने का संकल्प लेना।
- सम्यक वाक् — सत्य बोलना, किसी को न आहत करना।
- सम्यक कर्म — नैतिक और न्यायपूर्ण कार्य करना।
- सम्यक आजीविका — ऐसा व्यवसाय या आजीविका जो किसी को नुकसान न पहुंचाए।
- सम्यक व्यायाम — मानसिक और शारीरिक सुधार के लिए सतत प्रयास।
- सम्यक स्मृति — वर्तमान क्षण के प्रति सजगता बनाए रखना।
- सम्यक समाधि — ध्यान और आत्म-संयम से आत्मा को स्थिर बनाना।
उनका धर्म किसी जाति, लिंग या वर्ण पर आधारित नहीं था, बल्कि समता, करुणा और विवेक पर आधारित था। बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने उनके उपदेशों को संरक्षित किया और आगे बढ़ाया। बौद्ध धर्म बाद में श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड, चीन, जापान, तिब्बत सहित एशिया के कई देशों में फैल गया।
बुद्ध ने न केवल आध्यात्मिक मुक्ति की राह दिखाई बल्कि एक ऐसा समाज-संवाद प्रस्तुत किया जो बराबरी, करुणा और सोच पर आधारित था।