गौतम बुद्ध: जीवन, दर्शन और बौद्ध धर्म का उदय

प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व लुम्बिनी वन (वर्तमान नेपाल) में हुआ था। उनका बाल्यकालिक नाम सिद्धार्थ था। वे शुद्धोधन और मायादेवी के पुत्र थे। शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गण के राजा थे। मायादेवी का देहांत सिद्धार्थ के जन्म के कुछ ही दिनों बाद हो गया था, इसलिए उनका लालन-पालन उनकी मौसी महामाया गौतमी ने किया। इसलिए उन्हें "गौतम" कहा गया।

उनका बचपन राजसी वैभव और सुख-सुविधाओं से भरपूर था। शुद्धोधन ने उन्हें सांसारिक कष्टों से दूर रखने के लिए तीन अलग-अलग ऋतुओं के लिए अलग-अलग महलों का निर्माण करवाया था। उनका उद्देश्य था कि सिद्धार्थ को कभी भी जीवन की कठोरता का सामना न करना पड़े।

विवाह और पारिवारिक जीवन
सोलह वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा नामक एक सुंदर और सुशील कन्या से हुआ। विवाह के कुछ वर्षों बाद उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम "राहुल" रखा गया। इस समय तक सिद्धार्थ का जीवन पूरी तरह राजसी वातावरण में सुरक्षित और सुसज्जित था।


सांसारिक दुखों से सामना
एक दिन सिद्धार्थ अपने सारथी छन्ना के साथ नगर भ्रमण को निकले। इस यात्रा में उन्होंने चार ऐसे दृश्य देखे जिन्होंने उनके मन और विचारों को झकझोर कर रख दिया।

उन्होंने पहले एक वृद्ध व्यक्ति को देखा, जो चलने में असमर्थ था और शरीर पूरी तरह झुक चुका था। फिर उन्होंने एक रोगी व्यक्ति को देखा, जो दर्द और पीड़ा से कराह रहा था। इसके बाद उन्होंने एक मृत व्यक्ति की अर्थी देखी, जिसे लोग अंतिम संस्कार के लिए ले जा रहे थे। अंत में उन्होंने एक सन्यासी को देखा, जो शांत, गंभीर और पूर्ण रूप से आत्म-संतुष्ट दिखाई दे रहा था।

इन चार दृश्यों ने सिद्धार्थ को सोचने पर मजबूर कर दिया कि यह संसार वास्तव में क्षणभंगुर है। जीवन में केवल सुख नहीं है, बल्कि दुख, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु जैसे अमिट सत्य भी मौजूद हैं। उन्होंने यह जानने की ठानी कि इन दुखों का स्थायी समाधान क्या है।


गृहत्याग: महाभिनिष्क्रमण
सिद्धार्थ ने अपने परिवार, महल और राजसी जीवन का त्याग करने का निर्णय लिया। एक रात्रि, जब यशोधरा और राहुल गहरी नींद में थे, वे चुपचाप महल छोड़कर वन की ओर चल पड़े। यह घटना "महाभिनिष्क्रमण" कहलाती है — यानी महान त्याग।

सिद्धार्थ अब एक साधु के रूप में जीवन जीने लगे। उन्होंने विभिन्न गुरुओं से शिक्षा ली, योग, तपस्या, ध्यान के मार्ग को अपनाया। वे लगातार ज्ञान की खोज में लगे रहे, लेकिन किसी से भी उन्हें वह ज्ञान नहीं मिला जो उन्हें दुखों से मुक्ति दिला सके।


कठोर तपस्या और उसका त्याग
छह वर्षों तक उन्होंने कठोर तपस्या की — भूख, प्यास, नींद और शरीर की सभी इच्छाओं को दबाकर — लेकिन अंततः उन्होंने यह अनुभव किया कि आत्म-पीड़ा से मोक्ष नहीं मिल सकता।

उन्होंने यह समझा कि न तो अत्यधिक विलासिता और न ही अत्यधिक कष्ट का जीवन सत्य की ओर ले जाता है। इस अनुभव के बाद उन्होंने ‘मध्यम मार्ग’ (Middle Path) का सिद्धांत अपनाया — एक संतुलित, संयमित और विवेकपूर्ण जीवन।


बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति
गया में निरंजना नदी के तट पर एक पीपल वृक्ष (जिसे बाद में 'बोधि वृक्ष' कहा गया) के नीचे उन्होंने ध्यान साधना की। वैशाख पूर्णिमा की रात्रि को उन्होंने समाधि लगाई और अनेक घंटों तक ध्यान करते रहे। अंततः उन्हें बोधि (ज्ञान) की प्राप्ति हुई।

इस दिव्य ज्ञान से उन्होंने समझा कि जन्म, मृत्यु और दुःख का चक्र कैसे चलता है और इससे मुक्ति कैसे पाई जा सकती है। अब वे सिद्धार्थ नहीं बल्कि बुद्ध — अर्थात "बोध प्राप्त पुरुष" या "जाग्रत आत्मा" बन चुके थे।


बुद्ध के प्रथम उपदेश और धर्मचक्र प्रवर्तन
ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध ने सबसे पहला उपदेश सारनाथ (वाराणसी के पास) में अपने पांच पूर्व साथियों को दिया। इसे 'धर्मचक्र प्रवर्तन' कहा जाता है — अर्थात धर्म के चक्र को चलाना।

यहां उन्होंने चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग की शिक्षा दी। यही बौद्ध धर्म के मूल स्तंभ बने।


चार आर्य सत्य

  • दुःख का सत्य — यह स्वीकार करना कि जीवन में दुःख अनिवार्य है। जन्म, वृद्धावस्था, रोग, मृत्यु, प्रिय से वियोग, अप्रिय से संपर्क — ये सभी दुःख हैं।
  • दुःख का कारण — तृष्णा यानी इच्छाओं की अग्नि दुःख की जड़ है। जब हम किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति को पाने की लालसा करते हैं, और वह पूरी नहीं होती, तब हम दुःखी होते हैं।
  • दुःख की निवृत्ति — यदि तृष्णा को समाप्त कर दिया जाए, तो दुःख भी समाप्त हो सकता है।
  • दुःख निवारण का मार्ग — तृष्णा के विनाश हेतु अष्टांगिक मार्ग ही एकमात्र उपाय है।


अष्टांगिक मार्ग

  • सम्यक दृष्टि — जीवन और धर्म को सही रूप से समझना।
  • सम्यक संकल्प — दया, करुणा और अहिंसा के साथ जीवन जीने का संकल्प लेना।
  • सम्यक वाक् — सत्य बोलना, किसी को न आहत करना।
  • सम्यक कर्म — नैतिक और न्यायपूर्ण कार्य करना।
  • सम्यक आजीविका — ऐसा व्यवसाय या आजीविका जो किसी को नुकसान न पहुंचाए।
  • सम्यक व्यायाम — मानसिक और शारीरिक सुधार के लिए सतत प्रयास।
  • सम्यक स्मृति — वर्तमान क्षण के प्रति सजगता बनाए रखना।
  • सम्यक समाधि — ध्यान और आत्म-संयम से आत्मा को स्थिर बनाना।


बौद्ध धर्म का विस्तार
बुद्ध ने जीवनभर पूरे उत्तर भारत में भ्रमण कर उपदेश दिए। उनके अनुयायी बढ़ते गए — स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र — सभी वर्ण के लोग उनके अनुयायी बने।

उनका धर्म किसी जाति, लिंग या वर्ण पर आधारित नहीं था, बल्कि समता, करुणा और विवेक पर आधारित था। बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने उनके उपदेशों को संरक्षित किया और आगे बढ़ाया। बौद्ध धर्म बाद में श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड, चीन, जापान, तिब्बत सहित एशिया के कई देशों में फैल गया।


गौतम बुद्ध की मृत्यु (महापरिनिर्वाण)
बुद्ध ने 80 वर्ष की आयु में कुशीनगर (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में अपने अंतिम उपदेश दिए और वहीं उन्होंने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। यह एक ऐसी स्थिति मानी जाती है जहाँ व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से पूरी तरह मुक्त हो जाता है।


निष्कर्ष
गौतम बुद्ध का जीवन केवल एक धार्मिक कथा नहीं, बल्कि एक बौद्धिक, नैतिक और दार्शनिक यात्रा है जो आज भी प्रासंगिक है। उनकी शिक्षाएँ आज के युग में भी उतनी ही प्रभावशाली हैं, जितनी 2500 वर्ष पहले थीं।

बुद्ध ने न केवल आध्यात्मिक मुक्ति की राह दिखाई बल्कि एक ऐसा समाज-संवाद प्रस्तुत किया जो बराबरी, करुणा और सोच पर आधारित था।

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