
पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ
ग्वालियर हाईकोर्ट में बाबा साहेब अंबेडकर की मूर्ति लगाने की प्रक्रिया मार्च 2025 के मध्य से शुरू हुई। संविधान निर्माता को सम्मानित करने की यह पहल बार एसोसिएशन की ओर से सुप्रीम कोर्ट‑आदेश का हवाला देते हुए, न्यायालय परिसर को “पब्लिक जगह” मानकर नकार दी गई। वकील संघ ने लाल पट्टी बाँधकर विरोध शुरू किया, जबकि दलित/एससी‑एसटी‑ओबीसी वकीलों ने इसे जातिवादी विरोध मानते हुए कड़ा ऐतराज़ जताया।
बार एसोसिएशन ने ये भी तर्क दिया कि बिना अनुमति मूर्ति की नींव तैयार की गई, जिससे संवैधानिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन हुआ । लेकिन दलित वकील समूहों और संगठन इसे बाबा साहेब अंबेडकर के योगदान पर निशाना समझते हैं—क्योंकि यह संकेत देता है कि संविधान निर्माता तक सम्मान नहीं पा रहे।
समयरेखा (मार्च से जून 2025)
21 मार्च 2025 – मूर्ति स्थापना की प्रक्रिया शुरू हुई; बार एसोसिएशन ने विरोध जताया और लाल पट्टी बाँधी।
14 मई 2025 – परिसर में वकील दो समूहों में बंटे, वकील‑संघ ने आरोप लगाया कि मूर्ति स्थापना फंड अपराधिक तत्वों से लिया गया, जिससे पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा।
18 मई 2025 – भीम आर्मी के कार्यकर्ता को वकीलों ने पीटा, परिसर में तनाव भड़क गया।
23 मई 2025 – बसपा प्रमुख मायावती ने इसे “जातिवादी मानसिकता” करार देते हुए नाराज़गी जताई, और सरकार से हस्तक्षेप की मांग की।
9 जून 2025 – सपा सांसद रामजीलाल सुमन ने निर्मोही सरकार को बेशर्मी से कार्य से रोकने का आरोप लगाते हुए कहा कि कुछ मिनटों में मूर्ति लग सकती थी।
11 जून 2025 – भीम आर्मी ने बड़ी महापंचायत ग्वालियर‑मोरैना सीमा पर आयोजित की, जिसमें आंदोलन को तेज करने की चेतावनी दी गई।
दलित समुदाय की प्रतिक्रिया
दलित संगठनों और भीम आर्मी ने इस विरोध को जातिगत भेदभाव तथा संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ मानते हुए इसे गंभीर सामाजिक अपराध बताया:
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भीम आर्मी देश भर में सक्रिय, जब कुछ समुदाय बाबा साहेब अंबेडकर की मूर्ति लगाने में अवरोध डालते हैं, तब प्रदर्शन बन जाता है—जैसा हालातों में हुआ।
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दलील है कि बाबा साहेब अंबेडकर केवल दलितों के नेता नहीं, संविधान निर्माता हैं। उनकी प्रतिमा को बाधित करना संविधान‑प्रेमी भावना के खिलाफ है। भीम आर्मी ने साफ कहा “अगर संवाद विफल हुआ, तो आंदोलन तेज होगा”।
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भारत विभिन्न जिलों में अंबेडकर मूर्तियाँ टूटने या हटवाई गई हैं, जिसके बाद दलित समुदाय ने न केवल प्रदर्शन करा चुके हैं, बल्कि ज्ञापन सौंपे—ऐसी घटनाएँ मुरैना, दमोह, कानपुर और गाजियाबाद में हुईं। इनसे स्पष्ट होता है कि बाबा साहेब अंबेडकर का सम्मान बाधित करना, केवल स्थानीय विवाद नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर मूल अधिकारों की लड़ाई है।
राजनीतिक एवं कानूनी पक्ष
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मायावती जैसे नेता दलित अधिकारों की आवाज़ रहते हैं। ग्वालियर विवाद पर उन्होंने कहा कि यह जातिवाद का ही दूसरा रूप है, और सरकार‑प्रशासन को इस पर कार्रवाई करनी चाहिए।
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सपा सांसद रामजीलाल सुमन ने न्यायालय और शासन की “इच्छाशक्ति” पर कटाक्ष किया—यह झलकता है कि दलितों के लिए अधिकार मानवीय और राजनीतिक बहस का विषय बन गए हैं।
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सरकार की ओर से कोई स्पष्ट संकल्प नहीं देखा गया। सुप्रीम कोर्ट‑निर्देशों की आड़ में निर्णय टाल दिए गए। प्रशासन पुलिस बल ज्यादा करता दिखा, लेकिन न्यायिक आदर्श कहीं पीछे छूट गए।
औचित्य: क्यों है लड़ाई जरूरी?
- संविधान के निर्माता का सम्मान – बाबा साहेब अंबेडकर की प्रतिमा न्याय, समानता और बुनियादी अधिकारों का प्रतीक है। इसे रोका जाना संविधान‑आदर्श के खिलाफ़ है।
- दलितों का आत्म-सम्मान – मूर्तियाँ दलित समुदाय के सम्मान, अस्तित्व और पहचान का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन पर हमला या अवरोध उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचा है।
- जातिवादी मानसिकता से मुक्ति – जो विरोध संस्था‑कारी वर्गों की सोच को दर्शाता है, वह घोषित रूप से बुद्ध‑आधुनिकता के खिलाफ है।
- जमीनी संघर्षों की लड़ाई – मूर्तियाँ केवल प्रतीक नहीं, बल्कि राज्य‑सत्ता से सवाल भी उठाती हैं; यही कारण है कि दलित समूह इसे आंदोलन का माध्यम बना रहे हैं।
आगे के रास्ते और सुझाव
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संविधान‑आधारी बहस की पहल: सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को खोलकर जात‑आधार पर लागू करने को चुनौती दी जाएगी। सांसद‑नेताओं से इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए।
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प्रशासनिक कार्रवाई: सरकार को स्पष्ट रूप से आगे आकर मूर्ति की स्थापना की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए, न कि पुलिस बल की सहायता से विरोध को दबाकर।
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जनसामाजिक समर्थन: संविधान‑समर्थक और लोकतांत्रिक समाज को खुलकर दलितों का साथ देना चाहिए—क्योंकि ये मुद्दे केवल एक समुदाय तक सीमित नहीं, बल्कि सभी भारतीयों के लिए हैं।
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संवेदनशील मीडिया रिपोर्टिंग: मीडिया को जातिवादी भाषा से दूर रहकर इस लड़ाई को संविधान‑मुखी तरीके से कवर करना चाहिए।
निष्कर्ष
ग्वालियर हाईकोर्ट परिसर में बाबा साहेब डॉ अंबेडकर की मूर्ति को लगाने से जो विवाद उत्पन्न हुआ है, वह केवल कानूनी टकराव नहीं है—यह दलित समाज, संविधान और सामाजिक न्याय की अवधारणा पर हमला है। संविधान वही जीवित रहेगा जहाँ इसके निर्माता की मर्यादा बरकरार हो।
इस लड़ाई में दलित समुदाय न केवल सम्मान मांग रहा है, बल्कि लोकतंत्र के मूल्यों और संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि कर रहा है। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की मूर्ति सिर्फ एक मूर्ति नहीं—यह दलित समुदाय की ताकत, अधिकार और स्वतंत्रता का प्रतीक है। इस प्रतीक को सम्मान देकर ही हम एक स्वतंत्र-विषम, समावेशी भारत की नींव मजबूत कर सकते हैं।