Showing posts from 2025

कुर्सी नहीं, जाति हटाइए — पहले अपने भीतर से, फिर समाज से

कभी कोई तस्वीर हमारी आंखों से गुजरती है और सीधा दिल में उतर जाती है। एक शिक्षक ज़मीन पर बैठा है, सामने उसकी डेस्क पर कंप्यूटर और फाइलें रखी हैं, लेकिन उसके पास बैठने को कुर्सी नहीं। न कोई शोर, न गुस्सा, न शिकायत। बस मौन, लेकिन ऐसा मौन जो चीख रहा था …

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एक संदेश देने का प्रयास है कि “धार्मिक मंच तुम्हारे लिए नहीं है।”

कभी धर्म को जोड़ने वाला माना गया था। वह जो मनुष्य को मनुष्य से, और आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। लेकिन जब धर्म पर वर्ण का वर्चस्व चढ़ जाता है, तो वह न जोड़ता है, न ऊपर उठाता है — सिर्फ रौंदता है। उत्तर प्रदेश के इटावा ज़िले में एक ऐसी ही दिल दहला …

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अक्सर बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्तियाँ ही क्यों तोड़ी जाती हैं?

भारत में मूर्तियाँ तोड़े जाने की घटनाएँ कोई नयी नहीं हैं। इतिहास में पहले बुद्ध की मूर्तियों को भी तोड़ा गया, आज वही मूर्तियाँ ज़मीन में से निकल रही हैं। सदियों से मूर्तियाँ सत्ता, पहचान और विचारधारा का प्रतीक रही हैं—और जब भी किसी को चुनौती देना हो…

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अहमदाबाद विमान दुर्घटना: यह दुर्घटना केवल एक विमान क्रैश नहीं

12 जून 2025 की दोपहर भारत के इतिहास में एक और दुखद अध्याय जुड़ गया। एयर इंडिया की फ्लाइट AI171, जो अहमदाबाद से लंदन गेटविक के लिए रवाना हुई थी, टेकऑफ के कुछ ही क्षणों में दुर्घटनाग्रस्त हो गई। यह हादसा न केवल तकनीकी और मानव त्रुटियों का परिणाम प्रती…

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इमरजेंसी में सिर्फ एक शब्द: MAYDAY – जानिए इसका इतिहास

"Mayday" एक अंतरराष्ट्रीय रूप से मान्यता प्राप्त आपातकालीन शब्द है जिसका उपयोग विशेष रूप से वायुयान (aircraft), जलयान (ships) और अन्य परिवहन माध्यमों द्वारा संकट के समय किया जाता है। जब जानमाल को गंभीर खतरा होता है—जैसे विमान का इंजन फेल ह…

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ग्वालियर में बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर प्रतिमा विवाद: दलित अस्मिता, संविधान और जातिवादी मानसिकता के बीच संघर्ष

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर सिर्फ एक व्यक्ति नहीं थे—वह दलित समाज के अधिकारों और संवैधानिक न्याय के प्रतीक थे। उनकी मूर्ति स्थापित करना केवल पत्थर नहीं, बल्कि सामाजिक सम्मान का इशारा है। जब ग्वालियर हाईकोर्ट परिसर में ऐसी प्रतिमा लगाने को लेकर बाध…

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जब तक समाज में बराबरी नहीं होगी, तब तक साहित्य भी एकतरफा रहेगा

"जब तक समाज में बराबरी नहीं होगी, तब तक साहित्य भी एकतरफा रहेगा।" — ओमप्रकाश वाल्मीकि भारतीय समाज की सबसे बड़ी विडंबना यही रही है कि जिस जाति ने सबसे अधिक पीड़ा झेली, उसी की आवाज़ सबसे अधिक दबाई गई — साहित्य में भी, समाज में भी। दलित साहि…

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जातिवाद और पर्यावरणीय संकट : एक संरचनात्मक अन्याय की कहानी

भारत में जाति व्यवस्था कोई केवल सामाजिक ढांचा नहीं, बल्कि एक ऐसा अदृश्य जाल है जो जीवन के हर पहलू को छूता है — शिक्षा, रोज़गार, सम्मान, और... पर्यावरण तक को। यह बात सुनने में थोड़ी अटपटी लग सकती है, लेकिन हकीकत ये है कि भारत में पर्यावरणीय संकट और स…

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