दलित और आदिवासी समुदायों के लिए पर्यावरणीय संकट क्यों अधिक जानलेवा है?


भारत में पर्यावरणीय संकट अब सिर्फ बाढ़, सूखा या जंगल की आग तक सीमित नहीं रह गया है। यह संकट आज सामाजिक असमानताओं की परतों को भी उजागर कर रहा है। जो समुदाय सदियों से हाशिए पर हैं — जैसे दलित, आदिवासी, घुमंतू जनजातियाँ और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग — उनके लिए यह संकट जीवन और मृत्यु का सवाल बन चुका है।

जब हम जलवायु परिवर्तन की बात करते हैं, तो अक्सर बड़े-बड़े शहरों, उद्योगों, और ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा होती है, लेकिन उन चेहरों की बात नहीं होती जो इस संकट को सबसे पहले और सबसे तीव्रता से महसूस करते हैं — वे जो झुग्गियों में रहते हैं, जंगलों में अपनी पहचान बचाए हुए हैं, और जिनकी ज़मीनें विकास के नाम पर छीनी जा रही हैं।


जलवायु संकट का सबसे पहला वार किन पर होता है?

हाशिए पर बसे समुदाय न केवल सबसे पहले इस संकट का असर झेलते हैं, बल्कि इनका पुनर्वास भी सबसे आख़िरी में होता है — अगर होता है तो। उनके पास ना तो संसाधनों की सुरक्षा है, ना ही आवाज़ पहुँचाने के साधन। गाँव के अंतिम छोर पर बसे घर, नदी किनारे की बस्तियाँ, और शहर की स्लम कॉलोनियाँ — ये सब जलवायु आपदाओं की सबसे पहली शिकार बनती हैं।

इन समुदायों को पहले ही शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा गया है, ऐसे में जब प्राकृतिक संकट आता है, तो ये उनके लिए एक और सामाजिक अन्याय बन जाता है।


प्रदूषण — सांसों में ज़हर, जीवन में अभाव

भारत में वायु और जल प्रदूषण अब सामान्य स्थिति बन चुकी है। लेकिन इसका प्रभाव भी समान नहीं है। साफ हवा और शुद्ध पानी आज एक वर्ग विशेष के लिए आरक्षित हो गए हैं। वहीं दूसरी ओर, दलित और आदिवासी बस्तियों के पास बहने वाली नदियाँ अब गटर बन चुकी हैं। इन नदियों में नहाना, कपड़े धोना और उसी से पानी पीना — यह मजबूरी है, न कि विकल्प।

बिना इलाज के बीमारियाँ फैल रही हैं। त्वचा रोग, श्वसन समस्याएँ, और बच्चों में जन्मजात विकार आम होते जा रहे हैं। इनकी तकलीफों को आँकड़ों में नहीं, ज़मीन पर महसूस किया जा सकता है।


मानसिक स्वास्थ्य — एक अदृश्य संकट

शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य पर भी इस संकट का असर गहरा है। जब कोई समुदाय लगातार विस्थापन, अपमान, असुरक्षा और संसाधनों से वंचित रहने का दर्द झेलता है, तो उनके भीतर चिंता, अवसाद और असहायता की भावना घर कर जाती है। मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर चर्चा करना भी वर्जित मान लिया गया है — खासकर उन वर्गों के बीच, जिनके पास इलाज तो दूर, जानकारी भी नहीं है।


नीतियाँ हैं, लेकिन न्याय नहीं

भारत में पर्यावरण संरक्षण को लेकर कानून तो बने हैं, लेकिन उनका असर तब तक अधूरा है जब तक वह हाशिए पर खड़े नागरिक को न छू सके। ज़मीन के अधिकार, स्वास्थ्य सेवाएँ, और पर्यावरणीय न्याय — यह सब कागज़ों तक सीमित हैं। उन पर अमल तब तक नहीं होगा जब तक नीति निर्धारकों के दिमाग में इन समुदायों की उपस्थिति नहीं होगी।


अब क्या करना होगा?

  • संसाधनों का समान वितरण: हर नागरिक को स्वच्छ जल, हवा और ज़मीन का हक़ मिलना चाहिए। विकास केवल शहरों और बड़े उद्योगों के लिए नहीं होना चाहिए।

  • स्थानीय स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करना: दूरदराज़ के क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सक्षम बनाना और नियमित स्वास्थ्य जांच सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी है।

  • पर्यावरणीय शिक्षा और जागरूकता: समुदायों को उनके पर्यावरणीय अधिकारों और संकटों के प्रति सजग बनाना होगा, ताकि वे स्वयं अपनी सुरक्षा के लिए आवाज़ उठा सकें।

  • पारंपरिक ज्ञान को पुनः मान्यता देना: आदिवासी और ग्रामीण समुदायों का प्रकृति से संबंध सिर्फ भावनात्मक नहीं, वैज्ञानिक भी है। उनके ज्ञान को संरक्षण नीतियों में शामिल करना समय की माँग है।

  • कानूनी सहायता और प्रतिनिधित्व: हाशिए के लोगों को न केवल कानूनों की जानकारी दी जाए, बल्कि उनका प्रतिनिधित्व नीतियों में भी हो।


निष्कर्ष

पर्यावरणीय संकट किसी प्राकृतिक आपदा से कहीं अधिक गहराई लिए हुए है। यह भारत के सामाजिक ढांचे की असमानता को उजागर करता है। जब तक हम पर्यावरण को केवल पेड़-पौधों और नदियों की दृष्टि से देखेंगे, और उसे इंसानी गरिमा और अधिकार से नहीं जोड़ेंगे — तब तक हमारा समाधान भी अधूरा रहेगा।

यदि हम वास्तव में एक समावेशी, सतत और न्यायपूर्ण समाज चाहते हैं, तो हमें सबसे पहले उन आवाज़ों को सुनना होगा, जो अब तक विकास की बहस में अनसुनी रहीं।

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