आज का मेरा लिखने का विषय कुछ अलग है, लेकिन तथ्यपूर्ण व तर्कपूर्ण है। जिसमें एक सार्थक संदेश, विचार, अभिव्यक्ति सभी का मिलाजुला सा विवरण स्पष्ट नजर आये तो पसंद कीजियेगा।
और यह भी सत्य है कि गांधी को समझना आसान नहीं है। एक व्यक्ति जिसने देश की आज़ादी की लड़ाई को अहिंसा के मार्ग से लड़ा, जिसने नफ़रत की जगह प्रेम और प्रतिशोध की जगह क्षमा को चुना – ऐसे व्यक्ति को आज आलोचना का पात्र बनते देखना एक विडंबना ही है।
लेकिन शायद यही समय की सच्चाई है। जिस समाज में झूठ को सौ बार बोलकर सच बना दिया जाता है, वहाँ गाँधी जैसे सत्य के उपासक की आलोचना आम बात हो जाती है। अफ़सोस की बात यह है कि आज सोशल मीडिया के ज़माने में हर कोई इतिहासकार बन बैठा है, बिना पढ़े, बिना समझे अपनी राय ठोक देना सबसे आसान काम हो गया है।
गाँधी ने न तो कभी खुद को महात्मा कहा और न ही राष्ट्रपिता, ये तो जनता का विश्वास और प्रेम था, जो उन्होंने अपने जीवन की सादगी, त्याग और समर्पण से अर्जित किया। जब उनके पास सत्ता थी, उन्होंने उसे ठुकरा दिया। जब उनके पास मौका था बदले का, उन्होंने शांति का रास्ता चुना। ये गांधी की महानता थी, लेकिन आज की भीड़ को इससे फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि आज हमें आदर्श नहीं, बल्कि आसान लक्ष्य चाहिए – जिस पर पत्थर फेंक कर अपने भीतर की कुंठा को निकाल सकें।
और हाँ, ये मत भूलिए कि आलोचना करना बुरा नहीं, लेकिन आलोचना तभी मूल्यवान होती है जब वह जानकारी और तर्क पर आधारित हो, न कि नफ़रत और अंधविश्वास पर। गाँधी कोई देवता नहीं थे, वे भी इंसान थे, उनकी भी गलतियाँ थीं, और उन्होंने स्वयं उन्हें स्वीकार भी किया। लेकिन उनके जीवन का उद्देश्य, उनका त्याग, उनका आत्मसंयम और उनका सत्य के प्रति समर्पण – क्या वह सब इतना कम है कि हम उसे नकार दें?
आज सवाल सिर्फ गांधी की आलोचना का नहीं है, सवाल यह है कि हम खुद कौन हैं? क्या हम में इतनी ईमानदारी है कि हम अपने जीवन में गांधी के एक प्रतिशत आदर्श भी उतार सकें? या हम बस यह सोचकर संतुष्ट हैं कि किसी महापुरुष की आलोचना करके हम खुद को बड़ा साबित कर लेंगे?
तो गांधी एक महात्मा थे, या नहीं थे .. लेकिन हम कौन हैं – यह सवाल हम सबको खुद से पूछने की ज़रूरत है।