स्त्रियों की स्वतंत्रता की मांग करतीं दो फ़िल्में : "पिंक और पार्चड"


समय बदलता है, कहानियाँ बदलती हैं, लेकिन अफसोस कि सिनेमा के परदे पर अक्सर बदलाव की गति धीमी ही रही है — खासकर तब, जब बात महिलाओं की हो। हिंदी फिल्मों में लंबे समय तक नायिका का किरदार सिर्फ 'रिक्त स्थान पूर्ति' तक ही सीमित रहा — एक सजावटी चेहरा, एक नृत्यदृश्य की ज़रूरत, या फिर एक वस्तु जो हीरो की मर्दानगी को स्थापित करने में मदद करे।

लेकिन सिनेमा के इस एकतरफ़ा विमर्श को चुनौती दी है कुछ ऐसी फिल्मों ने, जो केवल कहानी नहीं, एक आंदोलन हैं — और इस आंदोलन की दो मजबूत आवाज़ें हैं: 'पिंक' और 'पार्च्ड'


'पिंक': जब 'ना' सिर्फ शब्द नहीं, अधिकार बन जाता है

'पिंक' का निर्देशन अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने किया है — एक पुरुष निर्देशक ने, लेकिन स्त्री की अस्मिता और स्वायत्तता को इतनी गहराई से समझा, महसूस किया और परदे पर उतारा कि यह फिल्म एक मोर्चा बन गई। फिल्म की सबसे बड़ी ताक़त उसका संवाद है:
"नो मतलब नो!"

यह सिर्फ अदालत में बोला गया संवाद नहीं था, यह एक सम्पूर्ण समाज के लिए चेतावनी थी — कि स्त्री की इच्छा सर्वोपरि है। फिल्म में अमिताभ बच्चन एक वकील की भूमिका में हैं, जो तीन युवतियों के लिए समाज और न्यायपालिका के दोहरे मापदंडों से लड़ते हैं। यह कोई आम कोर्टरूम ड्रामा नहीं है, बल्कि एक सघन सामाजिक आलोचना है।

'पिंक' दिखाती है कि कैसे एक लड़की की स्वतंत्रता, जो घटना से पहले उसकी अपनी थी, घटना के बाद समाज द्वारा छीन ली जाती है। एक ऐसी गुलामी जो शब्दों में नहीं, नज़रों, सवालों और चुप्पियों में बाँध दी जाती है।


'पार्च्ड': जब औरतें खुद अपने लिए रोशनी चुनती हैं

'पार्च्ड' की निर्देशक लीना यादव हैं — और शायद इसीलिए इस फिल्म में स्त्री पीड़ा की प्रस्तुति महज़ सहानुभूति नहीं, आत्मानुभूति बन जाती है। यह फिल्म राजस्थान के एक सूखे और परंपराओं में जकड़े गांव की चार महिलाओं की कहानी है, जो सदियों पुरानी जंजीरों को तोड़कर अपने लिए जीवन चुनती हैं।

फिल्म में कोई बहुत बड़ा स्टार नहीं है, लेकिन हर किरदार ऐसा है जैसे वो हमारे गाँव, मोहल्ले या दिल के किसी कोने में पहले से मौजूद हो। लीना यादव ने इन्हें नायिका नहीं बनाया — उन्हें इंसान बना दिया।

"झुका के आसमान ही ज़मीन पर ला दिए हैं" — यह पंक्ति उनके निर्देशन के लिए एकदम उपयुक्त लगती है।

जहां 'पिंक' कानून और शहरी मानसिकता से टकराती है, वहीं 'पार्च्ड' परंपरा, विवाह, यौन शोषण और स्त्री-दमन की तहों को खोलती है। दोनों ही फिल्में अलग ज़मीन पर खड़ी हैं, लेकिन लक्ष्य एक ही है — स्त्री को उसकी असल पहचान दिलाना।


क्या अब भी बदलाव अधूरा है?

दुखद यह है कि ऐसे सशक्त सिनेमा की ज़रूरत आज भी पहले जितनी ही है, बल्कि शायद उससे कहीं ज़्यादा। जबकि महिलाएं आज हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं, वहीं समाज की वही पुरानी बेड़ियाँ अब भी उनके पाँवों से लिपटी हैं — कभी संस्कृति के नाम पर, कभी परंपरा के।

इसलिए ये फिल्में सिर्फ सिनेमा नहीं, आईना हैं — जो हमें याद दिलाती हैं कि
"अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होती है"
(जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई!)


निष्कर्ष: आवाज़ को सिनेमा बनने दो

'पिंक' और 'पार्च्ड' जैसी फिल्मों की सबसे बड़ी ताक़त ये है कि ये स्त्री को पीड़िता के फ्रेम से निकालकर प्रतिक्रिया देने वाली ताक़त बनाती हैं। और यही सिनेमा का असली काम है — बदलते समाज के भीतर नई सोच को जन्म देना।

जब सिनेमा नायिका को सिर्फ गीतों में नहीं, सवालों में भी शामिल करता है — तब वह सिर्फ मनोरंजन नहीं, विद्रोह बन जाता है।



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