
आज का युवा भारत का वर्तमान ही नहीं, बल्कि उसका भविष्य भी है। यह वह वर्ग है जो देश की तरक्की में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। लेकिन यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज का शिक्षित युवा बेरोजगारी और बेकारी की मार झेल रहा है। जिस युवा को देश का निर्माण करना था, वह आज खुद को बनाने में असमर्थ महसूस कर रहा है। यह केवल किसी एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि करोड़ों युवाओं की साझा पीड़ा है जो भारत के हर कोने में महसूस की जा रही है।
औपचारिक शिक्षा और बेरोजगारी का संबंध
भारत में हर साल लाखों विद्यार्थी ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट बनकर विश्वविद्यालयों से निकलते हैं। लेकिन इन डिग्रियों के बाद भी उनके सामने रोजगार का संकट जस का तस बना रहता है। सरकारी नौकरी के अवसर सीमित हैं और प्रतियोगिता इतनी कठिन कि लाखों में कुछ ही सफल हो पाते हैं। निजी क्षेत्र में भी नौकरियाँ हैं, लेकिन उनमें अनुभव, विशेष कौशल, अंग्रेज़ी दक्षता और तकनीकी योग्यता की शर्तें इतनी अधिक हैं कि आम ग्रेजुएट छात्र वहाँ टिक नहीं पाता।
यहाँ एक मूल समस्या उभरती है—हमारी शिक्षा प्रणाली की। आज जो शिक्षा प्रणाली हमारे देश में प्रचलित है, वह अभी भी अंग्रेज़ों के समय की औपनिवेशिक प्रणाली पर आधारित है जो 'क्लर्क' तैयार करने के उद्देश्य से बनाई गई थी, न कि वैज्ञानिक, शोधकर्ता, उद्यमी या व्यावसायिक रूप से सक्षम नागरिक। नतीजा यह है कि डिग्री तो युवाओं के हाथ में आ जाती है, लेकिन उनमें व्यावहारिक जीवन के लिए आवश्यक योग्यता, आत्मविश्वास और उद्यमशीलता की कमी होती है।
हुनर की कमी और आत्मनिर्भरता का अभाव
आज के अधिकतर शिक्षित युवा सिर्फ किताबी ज्ञान तक सीमित रह गए हैं। न उनके पास कोई विशेष तकनीकी कौशल है, न कोई हस्तकला, न व्यापारिक समझ और न ही कोई पेशेवर हुनर। उनके पास न तो स्वयं का व्यवसाय शुरू करने की सामर्थ्य है और न ही किसी काम में दक्षता जिससे वे कहीं नौकरी पा सकें। औद्योगिक प्रशिक्षण, तकनीकी संस्थानों से प्राप्त व्यावसायिक शिक्षा या डिजिटल युग के अनुसार नए कौशल जैसे डिजिटल मार्केटिंग, प्रोग्रामिंग, डेटा साइंस, फ्रीलांसिंग आदि की जानकारी भी बहुसंख्यक युवाओं के पास नहीं होती। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे पारंपरिक कॉलेज और विश्वविद्यालय इन कौशलों को सिखाने में असफल रहे हैं।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आज का युवा अपने पारंपरिक और पारिवारिक व्यवसायों को भी हेय दृष्टि से देखने लगा है। गाँवों में खेती, हस्तशिल्प, कढ़ाई-बुनाई, कुम्हारी, लोहारगिरी, बुनकरी जैसे पुराने लेकिन आत्मनिर्भर पेशे आज लुप्तप्राय हो चुके हैं। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि पढ़े-लिखे युवक इन कामों को ‘छोटा’ या ‘गैर-आधुनिक’ समझते हैं। इससे वे न सिर्फ रोज़गार से वंचित हो जाते हैं, बल्कि सामाजिक असंतुलन भी उत्पन्न होता है क्योंकि एक परंपरा का समापन होता है।
पारिवारिक और आर्थिक स्थिति की वास्तविकता
भारतीय समाज में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जहाँ घर का आर्थिक और मानसिक वातावरण पढ़ाई के लिए अनुकूल नहीं होता। कई घरों में एक कमरे में चार-पाँच लोग रहते हैं, जिनमें से कोई बीमार है, कोई काम पर जाने को तैयार हो रहा है, तो कोई टीवी देख रहा है। ऐसे में पढ़ाई में ध्यान लगाना कठिन हो जाता है। ऊपर से, अच्छी किताबें, ट्यूशन क्लासेस, कोचिंग सेंटर, लैपटॉप, इंटरनेट जैसी चीज़ों पर खर्च करना हर परिवार की सामर्थ्य में नहीं होता। ऐसे में एक सामान्य परिवार से आने वाला छात्र सिर्फ़ औसत दर्जे की शिक्षा प्राप्त कर पाता है।
इसके परिणामस्वरूप वह किसी बड़ी और प्रतिष्ठित नौकरी की कल्पना भी नहीं कर सकता। जब प्रतियोगी परीक्षाओं में करोड़ों विद्यार्थी भाग ले रहे हों और हर सीट के लिए सौ-सौ उम्मीदवार हों, तब यह कल्पना करना कि केवल डिग्री के बल पर नौकरी मिल जाएगी, केवल भ्रम है। यही भ्रम आज की युवा पीढ़ी को निराशा की ओर ले जा रहा है।
मीडिया, मनोरंजन और असल ज़िन्दगी की दूरी
आज का युवा वर्ग सोशल मीडिया, टीवी सीरियल्स, सिनेमा और वेब सीरीज़ से अत्यधिक प्रभावित हो चुका है। इन माध्यमों में जो ज़िन्दगी दिखाई जाती है, वह पूर्णतः भौतिकवादी, आकर्षक और दिखावटी होती है। फिल्में और सीरियल्स यह भ्रम फैलाते हैं कि बिना ज़्यादा मेहनत किए, आसानी से सुख-सुविधाओं और सुंदर जीवनसाथी को पाया जा सकता है। यह कृत्रिम चित्रण युवा मानस को गुमराह करता है। जब वह वास्तविक जीवन में संघर्ष और कठिनाइयों का सामना करता है, तो वह मानसिक रूप से टूटने लगता है। उसे लगता है कि वह असफल है, जबकि सच यह है कि उसे असल जीवन के लिए तैयार ही नहीं किया गया था।
सामाजिक दृष्टिकोण और आत्मविश्वास की कमी
बेरोजगारी और बेकारी केवल आर्थिक समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक और मानसिक संकट भी है। जब एक युवक ग्रेजुएट होकर भी घर बैठा होता है, तब परिवार और समाज उसे ‘निकम्मा’, ‘नाकारा’ और ‘अयोग्य’ जैसे शब्दों से नवाजता है। उसकी तुलना उन युवाओं से की जाती है जो कम पढ़े-लिखे होते हुए भी कुछ कमा रहे हैं। इस तुलना से उसका आत्मसम्मान आहत होता है। घर के बड़े लोग ताने देते हैं, पड़ोसी उपेक्षा से देखते हैं और मित्र साथ छोड़ देते हैं।
यही वह क्षण होता है जब युवक धीरे-धीरे मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार होने लगता है। वह खुद को दुनिया से काटने लगता है, समाज और परिवार से दूरी बना लेता है, और कभी-कभी आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर हो जाता है। ये घटनाएँ आज आम होती जा रही हैं, लेकिन समाज इन्हें केवल “कमज़ोरी” कहकर नज़रअंदाज़ कर देता है।
क्या हो सकता है समाधान?
इस गंभीर परिस्थिति से उबरने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है:
- शिक्षा प्रणाली में सुधार: हमारी शिक्षा को व्यावसायिक बनाना होगा। कोर्स में स्किल ट्रेनिंग, इंटर्नशिप, डिजिटल लर्निंग और प्रैक्टिकल अनुभव को प्राथमिकता देनी होगी।
- हुनर आधारित शिक्षा: ‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’ जैसे अभियानों को ज़मीनी स्तर तक पहुँचाया जाए ताकि युवा पारंपरिक व्यवसायों और नए स्वरोजगार के विकल्पों की ओर आकर्षित हों।
- सरकारी नीति में बदलाव: रोजगार पैदा करने के लिए सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में सूक्ष्म और लघु उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। साथ ही, बेरोजगारी भत्ता, स्वरोजगार ऋण योजना और स्टार्टअप फंड्स को सरल और सुलभ बनाया जाना चाहिए।
- मनोवैज्ञानिक परामर्श और मार्गदर्शन: विद्यालयों और कॉलेजों में कैरियर काउंसलिंग, मोटिवेशनल सेशन्स और मानसिक स्वास्थ्य के लिए नियमित परामर्श सत्र अनिवार्य किए जाने चाहिए।
- पारिवारिक समर्थन: परिवार को चाहिए कि वह बेरोजगार युवाओं को हीन दृष्टि से न देखे, बल्कि उन्हें समर्थन दे और नए विकल्पों के लिए प्रेरित करे।
- डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का उपयोग: फ्रीलांसिंग, कंटेंट क्रिएशन, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, ऑनलाइन ट्यूटरिंग, वेब डिज़ाइनिंग, एप डेवलपमेंट जैसे अनगिनत डिजिटल प्लेटफॉर्म्स हैं जिनसे बिना पूंजी के भी आम युवा कमाई कर सकता है।
निष्कर्ष
आज का शिक्षित युवा केवल डिग्रीधारी नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का वाहक बन सकता है—यदि उसे सही दिशा, सही समर्थन और सही अवसर मिलें। बेरोजगारी की यह समस्या केवल आंकड़ों का विषय नहीं है, यह हमारे राष्ट्र की रीढ़ को प्रभावित कर रही है। देश की प्रगति तभी संभव है जब युवाओं को सशक्त, कुशल और आत्मनिर्भर बनाया जाए।
शिक्षा केवल किताबी ज्ञान न रहकर यदि जीवन जीने की कला और आजीविका का साधन बन जाए, तो न बेरोजगारी रहेगी, न ही निराशा। इसलिए यह समय केवल चिंता का नहीं, बल्कि कार्यवाही का है। आइए, हम सब मिलकर एक ऐसा भारत बनाएं, जहाँ हर शिक्षित युवा न केवल पढ़ा-लिखा हो, बल्कि आत्मनिर्भर भी हो। यही सच्चा विकास और आत्मनिर्भर भारत का सपना होगा।