
भारत जैसे देश में, जहाँ शिक्षा को सामाजिक और आर्थिक प्रगति का आधार माना जाता है, यह एक गहरी विडंबना है कि शिक्षित युवक, विशेषकर ग्रेजुएट, आज बेरोजगारी की मार सबसे अधिक झेल रहे हैं। यह तथ्य न केवल सरकार की नीतियों पर प्रश्नचिह्न लगाता है, बल्कि हमारे संपूर्ण शिक्षा तंत्र, रोजगार संरचना और समाज के दृष्टिकोण पर भी गंभीर चिंता उत्पन्न करता है। ‘अनपढ़ों से ज़्यादा ग्रेजुएट युवक बेरोजगार हैं’—यह वाक्य मात्र एक तथ्य नहीं, बल्कि भारत के युवाओं की करुण सच्चाई है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वे कार्यालय (NSSO) की रिपोर्ट और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) जैसे संस्थानों की हालिया रिपोर्टों के अनुसार, भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं की बेरोजगारी दर अशिक्षित या कम शिक्षित युवाओं की तुलना में कहीं अधिक है। CMIE रिपोर्ट बताती है कि स्नातक डिग्रीधारकों की बेरोजगारी दर 17% से अधिक रही, जबकि प्राथमिक शिक्षा तक सीमित व्यक्तियों की बेरोजगारी दर 3-4% के आसपास है। यह आंकड़ा केवल एक आँकड़ा नहीं, बल्कि एक भयावह संकेत है कि हमारी शिक्षा प्रणाली और श्रम बाजार में कोई गंभीर असंतुलन मौजूद है।
इस असंतुलन के पीछे कई कारण जिम्मेदार हैं। सबसे पहले, भारत की शिक्षा प्रणाली अभी भी अधिकतर सैद्धांतिक ज्ञान पर केंद्रित है, जबकि नौकरी के लिए आवश्यक व्यावसायिक कौशल और व्यवहारिक ज्ञान की गंभीर कमी है। ग्रेजुएट स्तर पर छात्रों को वह स्किल्स नहीं दिए जाते, जो इंडस्ट्री या बाजार को चाहिए। नतीजतन, डिग्री तो हाथ में होती है, लेकिन नौकरी नहीं। यह ‘स्किल गैप’ भारत में उच्च शिक्षित बेरोजगारों के लिए सबसे बड़ा रोड़ा बन गया है।
दूसरा बड़ा कारण है—रोजगार के अवसरों की कमी और उनका असमान वितरण। शहरी क्षेत्रों में भी नौकरी की प्रतिस्पर्धा इतनी अधिक हो गई है कि एक सामान्य सरकारी नौकरी के लिए लाखों उम्मीदवार आवेदन करते हैं, जिनमें से अधिकांश ग्रेजुएट होते हैं। वहीं, निजी क्षेत्र में नौकरियाँ सीमित हैं और उनमें भी अनुभव, अंग्रेज़ी और तकनीकी दक्षता जैसे मानदंडों के चलते गाँव और कस्बों से पढ़े युवाओं के लिए अवसर और भी संकुचित हो जाते हैं। परिणामस्वरूप, वे बेरोजगारी या अल्परोजगारी का शिकार हो जाते हैं।
तीसरा कारण यह भी है कि अधिकांश विद्यार्थी आज भी पारंपरिक कोर्स जैसे बी.ए., बी.कॉम., बी.एससी. को ही प्राथमिकता देते हैं, जो सीधे किसी व्यावसायिक योग्यता से नहीं जुड़ते। इन कोर्सेज़ में करियर की स्पष्ट दिशा नहीं होती, जिससे डिग्री मिल जाने के बाद भी रोजगार पाने की संभावना धुंधली रह जाती है। इसके विपरीत, कुछ अनपढ़ या कम शिक्षित लोग समय रहते कोई हुनर या तकनीक सीख लेते हैं और स्वरोजगार या मजदूरी से अपनी आजीविका चला लेते हैं। उनके पास भले ही डिग्री नहीं होती, लेकिन जीने का ठोस साधन होता है।
एक और महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि देश में युवा वर्ग में सरकारी नौकरी की मानसिकता बहुत गहराई तक बैठी हुई है। ग्रेजुएट युवाओं का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में वर्षों बिता देता है, वह भी बिना यह समझे कि प्राइवेट क्षेत्र, स्टार्टअप्स, या फ्रीलांसिंग भी विकल्प हो सकते हैं। यह एक मानसिक जड़ता है, जो बेरोजगारी के चक्र को और अधिक मजबूत बनाती है। वहीं दूसरी ओर, कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति शायद शुरुआत में मजदूरी करता है, लेकिन जल्द ही वह कोई व्यवसाय, दुकान या तकनीकी काम शुरू कर अपने जीवन को व्यवस्थित कर लेता है।
इस विडंबना का एक सामाजिक पहलू भी है। समाज में शिक्षित होने की प्रतिष्ठा तो है, लेकिन जब यही शिक्षा रोजगार नहीं दे पाती, तब वह प्रतिष्ठा युवाओं के लिए बोझ बन जाती है। शिक्षित बेरोजगार युवक मानसिक तनाव, सामाजिक दबाव और आत्मग्लानि से ग्रसित होने लगते हैं। कई बार यह स्थिति आत्महत्या जैसी दुखद घटनाओं तक ले जाती है। यह हमारी सामाजिक संरचना की संवेदनहीनता का भी परिचायक है।
समाधान की दिशा में सबसे पहले हमें शिक्षा प्रणाली में मूलभूत सुधार करने होंगे। ग्रेजुएट कोर्स को अधिक व्यावसायिक, स्किल-बेस्ड और इंडस्ट्री फ्रेंडली बनाया जाना चाहिए। छात्रों को कॉलेज स्तर पर ही इंटर्नशिप, लाइव प्रोजेक्ट, डिजिटल कौशल, डेटा विश्लेषण, भाषा दक्षता और संप्रेषण क्षमता जैसे गुणों से लैस किया जाना चाहिए। इसके अलावा, सरकार को ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) को बढ़ावा देकर युवाओं के लिए स्थानीय रोजगार के अवसर सृजित करने चाहिए।
इसके साथ ही, युवाओं को स्वयं भी अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि सिर्फ डिग्री से कुछ नहीं होता, आज के युग में ज्ञान के साथ-साथ कौशल, नवाचार, नेटवर्किंग और उद्यमशीलता की आवश्यकता होती है। स्वरोजगार, फ्रीलांसिंग, डिजिटल मार्केटिंग, यूट्यूब चैनल, ब्लॉगिंग जैसे नए रास्ते भी अब रोज़गार के साधन बन चुके हैं। इनका उपयोग कर युवा अपनी ऊर्जा को सार्थक दिशा में मोड़ सकते हैं।
अंततः यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में बेरोजगारी अब केवल एक आर्थिक समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक, शैक्षणिक और मनोवैज्ञानिक संकट बन चुकी है। अनपढ़ों से अधिक शिक्षित युवाओं का बेरोजगार होना इस देश की नीतियों, संस्थानों और सोच पर गहरा प्रहार है। यदि समय रहते इसे नहीं सुधारा गया, तो भारत की सबसे बड़ी ताकत—उसका युवा वर्ग—उसकी सबसे बड़ी चुनौती बन जाएगा। इस संकट को टालना है तो हमें शिक्षा, रोजगार और सामाजिक दृष्टिकोण तीनों स्तरों पर बदलाव लाना ही होगा। यही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।