
"There are wounds that never show on the body that are deeper and more hurtful than anything that bleeds."
मेरे पिछले लेख में आपने पढ़ा कि अंधकारमय अंतहीन शून्यता में किस तरह हर कोई घिरा होता है उसी को मैं आगे लिख रहा हूँ।
अगर नहीं पढ़ा तो पहले वो पढ़ें जाकर :- आंखें खुली हों या बंद हों— रहता है.. तो बस एक अंतहीन खालीपन और अंधेरा।
मैं किसी समाधान की तलाश नहीं करता। मैं यहाँ किसी उम्मीद की बात भी नहीं करता। यह सिर्फ़ उस खामोश चीख़ की दस्तावेज़ी है, जो हर दिन, हर रात, भीतर गूंजती है — और जिसे कोई नहीं सुनता। यह उन विचारों की आवाज़ है जो शब्द नहीं बनते, बस मन के गलियारों में गूंजते रहते हैं। यह उनकी कहानी है जो बाहर से ज़िंदा दिखते हैं, लेकिन भीतर से रोज़ एक नया अंत जीते हैं। जब भीतर का अंधकार इतना घना हो जाए कि सूरज की रौशनी भी उसमें खो जाए, तब जो शेष बचता है — वही ये लेख मैंने लिखा है।
मैं हूँ, लेकिन होना महसूस नहीं होता
हर दिन लगता है जैसे मेरा अस्तित्व सिर्फ़ साँसों की एक प्रक्रिया बनकर रह गया है। मुझे देखकर कोई नहीं कह सकता कि अंदर क्या ज्वालामुखी सुलग रहा है। मैं बाहर से इंसान दिखता हूँ, लेकिन अंदर से सिर्फ़ एक बेजान खोल बन गया हूँ। कोई उद्देश्य नहीं, कोई चाह नहीं, बस एक न चलने वाला वक़्त हूँ। जो थम तो गया है लेकिन थमा नहीं है। शब्दों का कोई मतलब नहीं रहा, भावनाओं का कोई चेहरा नहीं बचा। बस मैं एक लंबी, अंतहीन उपस्थिति हूँ, जो बस जीने का नाटक करती है।
सांस लेना एक मजबूरी है, चाहत नहीं
हर सांस में सिर्फ़ एक सवाल गूंजता है: "मैं क्यों ज़िंदा हूँ?" कोई जवाब नहीं आता, बस अगली सांस चलती है — न चाहते हुए भी। जैसे मैं खुद से बंधा हुआ हूँ एक रस्सी से जो टूटती भी नहीं और ढीली भी नहीं होती। हर सांस के साथ लगता है जैसे कुछ और खो रहा हूँ — लेकिन क्या, ये पता नहीं। कभी-कभी लगता है सांस भी अब अपनी मर्ज़ी से नहीं आती। जैसे शरीर खुद से लड़ता हो, बस चलने का आदेश निभा रहा हो।
कुछ भी महसूस नहीं होता — और यही सबसे भयानक है
भावनाओं का सूख जाना किसी मौत से कम नहीं। जब तुम्हें तकलीफ़ भी नहीं होती, तब समझो तुम अपने ही अंत में पहुँच चुके हो। मुझे अब नफरत भी नहीं होती — क्योंकि वो भी तो एक भावना है, जो अब मुझमें बाकी नहीं। न रोने की तड़प है, न हँसने की उम्मीद — कुछ तो अजीब हो चुका है। खुशी और दुःख अब एक ही सिक्के के दो सड़े हुए पहलू लगते हैं। मुझे इस शून्यता से डर नहीं लगता — क्योंकि अब डर भी महसूस नहीं होता।
भीतर का शोर चुप्पी जैसा लगता है
ये वो शोर है जो कान से नहीं, आत्मा से सुना जाता है। जिसे कोई नहीं सुनता, इसलिए वो और तेज़ हो जाता है। अब लगता है, शोर और चुप्पी का फर्क भी मिट चुका है। यह इतना निरंतर है कि अब इसकी मौजूदगी भी सामान्य लगने लगी है। जैसे यह ही मेरी धड़कनों की आवाज़ बन चुका हो। मैं जितना चुप होता हूँ, भीतर उतना अधिक कोलाहल होता है।
हर रिश्ता अब बोझ जैसा लगता है
रिश्ते जो कभी सहारा थे, अब ज़ंजीर लगते हैं। मुझे उनसे नहीं, खुद से डर लगता है — क्योंकि मैं उन्हें कुछ नहीं दे सकता। मैं सिर्फ़ एक थका हुआ इंसान हूँ जो लोगों को थका देना नहीं चाहता। हर सवाल एक परीक्षा जैसा लगता है, हर जवाब एक पराजय। अब कोई पास बैठा हो तो भी अकेलापन नहीं जाता। बल्कि उनकी उपस्थिति से ही अपराधबोध बढ़ जाता है।
"मैं ठीक हूँ" — सबसे बड़ा झूठ जो मैं रोज़ बोलता हूँ
हर बार जब कोई पूछता है, मैं मुस्कुराता हूँ — झूठ बोलते हुए। क्योंकि सच सुनने का साहस किसी में नहीं है। या शायद मेरा सच इतना बेजान है कि लोग उसे स्वीकार ही नहीं कर पाएंगे। यह झूठ अब मेरी आदत बन चुका है — जैसे सांस लेना। मुझे खुद को भी यकीन नहीं रहता कि कब मैं सच बोलूंगा। और सच बोल भी दूँ, तो शायद कोई सुनना नहीं चाहेगा।
जिस आईने में मैं देखता हूँ, उसमें मैं नहीं दिखता
आईना अब कोई सत्य नहीं दिखाता — सिर्फ़ वो चेहरा जो दुनिया को चाहिए। उस चेहरे के पीछे एक जले हुए वजूद की राख है। अब मैं खुद को पहचानने से डरता हूँ, क्योंकि वो चेहरा मैं नहीं हूँ। हर सुबह आईना देखना एक यातना बन चुका है। जिसमें आंखें खोजती हैं — कि शायद आज कुछ बदला हो। पर जवाब वही होता है — एक खालीपन, जो हर दिन और गहरा हो जाता है।
हर दिन पहले से ज्यादा भारी होता है
हर नया दिन पुराने कल से अधिक बोझ लिए आता है। ऐसा लगता है जैसे वक़्त पीछे नहीं, बल्कि मेरे सीने पर आगे बढ़ रहा हो। हर घंटे, हर मिनट, हर पल एक वजन बनकर लटकता है। सुबह की रोशनी चुभती है, जैसे वह मेरे चेहरे पर कोई पर्दा हटाकर कह रही हो — "अब फिर से शुरू करो अपना अभिनय।" मैं हर रात सोचता हूँ कि शायद कल बेहतर हो, लेकिन फिर वही भारीपन गले पड़ता है। दिन अब बीतते नहीं, हम खुद ही बीतते चले जा रहे हैं।
नींद अब एक युद्ध बन चुकी है
थक कर भी सोना आसान नहीं रहा। बिस्तर अब सुकून का नहीं, एक और संघर्ष का प्रतीक बन चुका है। आँखें बंद होती हैं, लेकिन दिमाग़ जागता रहता है — बीते हर दृश्य को दोहराता हुआ। रात अब राहत नहीं देती, बल्कि और गहरी उलझनों में धकेल देती है। नींद में भी डर छिपा होता है — जागने का डर, फिर उसी खालीपन का सामना करने का डर। अब हर रात एक अग्निपरीक्षा बन चुकी है, जिसका अंत सुबह की हार होती है।
कोई लक्ष्य नहीं बचा
जिन चीज़ों को पाने की इच्छा थी, अब वे अर्थहीन लगती हैं। कभी जो लक्ष्य थे, अब उनकी याद भी बोझ बन चुकी है। अब कोई प्रेरणा नहीं, कोई दिशा नहीं — सिर्फ़ एक अंतहीन भटकाव है। लोग पूछते हैं, "आगे क्या सोच रखा है?" — और मैं बस चुप हो जाता हूँ। क्योंकि अब भविष्य की कल्पना भी एक थकाऊ खेल बन चुकी है। मैं जहाँ हूँ, वहीं फँसा हूँ — और यही मेरी परिभाषा बन गई है।
मृत्यु एक विकल्प नहीं, एक ख्वाहिश है
पहले मरने से डर लगता था, अब जीने से लगता है।
मृत्यु अब किसी दंड की तरह नहीं, एक राहत की तरह लगती है।
जन्म के बाद एक ही चीज़ तो निश्चित होती है और वो है "मृत्यु"।
ये सोच अब चौंकाती नहीं, बल्कि आराम देती है — जैसे किसी तीव्र पीड़ा का अंत।
लेकिन फिर भी, उस ख्वाहिश को पूरा करने की भी हिम्मत नहीं बची।
मैं उस मोड़ पर हूँ जहाँ ज़िंदगी और मौत दोनों से दूरी हो चुकी है।
अब सिर्फ़ एक ठहराव है — न आगे कुछ है, न पीछे कुछ छूटा है।
निष्कर्ष में कोई निष्कर्ष नहीं होता
मेरे इस लेख का कोई उत्तर नहीं है। कोई अंत नहीं है। कोई समाधान नहीं है। ये सिर्फ़ एक दस्तावेज़ है — उस भीतर की गूंज का, जो अंदर ही अंदर धीरे-धीरे फैलती चली जा रही है और जिसे कोई नहीं देख पाता। जो इस अवस्था को समझते हैं, उनके लिए यह लेख एक दर्पण है। और जो नहीं समझते — उनके लिए यह सिर्फ़ शब्दों का बोझ।
"कभी-कभी मनुष्य टूटता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे मिटता चला जाता है — और यही मृत्यु दर्दनाक होती है, जीते जी मर जाने की।"