आंखें खुली हों या बंद हों— रहता है.. तो बस एक अंतहीन खालीपन और अंधेरा

"It doesn't if I have my eyes open or closed, I always see the same darkness."

कभी-कभी ज़िंदगी कोई कहानी नहीं होती।
कोई शुरुआत, कोई मोड़, कोई अंत नहीं। बस एक रुकावटहीन गिरावट — जहाँ हर दिन कल जैसा लगता है, और हर रात थोड़ी ज़्यादा भारी।

ऐसी स्थिति में कुछ लोग कहते हैं — “उम्मीद ज़िंदा रखो”, लेकिन उन्हें नहीं पता कि जब भीतर सब खो चुका हो, तब उम्मीद सबसे ज़्यादा झूठ लगती है

मेरे लिखने से कोई प्रेरणा नहीं मिलेगी। यह कोई समाधान भी नहीं है।
यह सिर्फ़ उन अनकहे एहसासों की दस्तावेज़ी है, जिन्हें कोई नहीं सुनता।
जब आंखें खुली हों या बंद, और चारों तरफ़ अंधेरा ही महसूस हो —
तब इंसान जीता नहीं... बस सांस लेता है।

यह लेख उन्हीं साँसों का बोझ है।

और: ये कैद क्यों नहीं दिखती? इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई, अपने आप से होती है 


"सब कुछ बस भारी हो गया है…"

अब कोई वजह नहीं बची उठने की।
सुबह आँखें खुलती हैं तो लगता है जैसे ज़िंदगी ने एक और बार सज़ा दी है।
जिसे बाकी दुनिया ‘नया दिन’ कहती है, वह मेरे लिए वही पुराना थका हुआ बोझ होता है।
हर अलार्म, हर घंटी, हर आहट बस याद दिलाती है — तू अब भी ज़िंदा है, क्यों?


“भीड़ में भी खुद को अकेला महसूस करना अब आदत बन चुकी है”

आसपास लोग हैं, हँसी है, बातों की गूंज है — लेकिन मैं नहीं हूं।
मैं वहां होता भी हूं तो किसी को दिखता नहीं।
अब किसी से मिलना, बात करना, मुस्कुराना सब एक थका देने वाला अभिनय लगता है।
मैं जवाब देता हूँ, लेकिन सुनता कोई नहीं।
कभी-कभी लगता है मैं खुद अपनी ही आवाज़ से अपरिचित हो गया हूँ।


“अब कुछ अच्छा नहीं लगता... कुछ भी नहीं”

वो गाने जो कभी सुकून देते थे — अब शोर लगते हैं।
वो जगहें जो सुकून थीं — अब खाली लगती हैं।
भोजन का स्वाद चला गया है, नींद तो जैसे नाराज़ हो चुकी है।
मन में कोई रंग नहीं बचा — सब कुछ बेरंग है, फीका है, ठंडा है।
जैसे किसी कैनवास पर कोई रंग कभी गिरा ही नहीं।


“कोई नहीं समझता... और अब समझाना भी नहीं चाहता”

कभी कोशिश की थी — दर्द कहने की।
पर हर जवाब एक ही था:
"सोचो मत इतना,"
"ये सब तुम्हारे दिमाग का वहम है,"
"थोड़ा घूम लो, सब ठीक हो जाएगा।"

अब किसी को बताने का मन नहीं करता।
क्योंकि जो बाहर से देख रहे हैं, उन्हें भीतर के तूफान की आवाज़ कभी सुनाई नहीं देती।


“हर सांस भारी लगती है”

चलना मुश्किल नहीं, चलते रहने का मतलब ढूंढना मुश्किल है।
हर कदम एक सवाल उठाता है — "क्यों चल रहा हूँ?"
हर सांस में थकावट नहीं, निरर्थकता है।

जब बाहर की दुनिया भाग रही हो, और तुम्हारा मन चुपचाप दीवार की ओर देख रहा हो —
वहीं से शुरू होता है टूटना।


“खुद से सवाल करने की हिम्मत नहीं बची”

"मैं कौन हूँ?"
"क्या मैं कभी ठीक हो पाऊँगा?"
"क्या कोई मेरे जाने से फर्क महसूस करेगा?"

इन सवालों का जवाब नहीं है।
और अब इन्हें पूछने की हिम्मत भी नहीं।
मैं बस जीता हूँ, क्योंकि सांसें चल रही हैं — दिल की मर्ज़ी से नहीं, आदत से।


“अब कोई सपना नहीं आता”

नींद आती है, मगर राहत नहीं मिलती।
हर रात आंखें बंद होती हैं, पर मन में वही शोर चलता रहता है।
और जब सपना आता भी है, तो या तो डर होता है या खालीपन।
कभी-कभी ख्वाहिश होती है कि बस एक रात ऐसी हो जिसमें कुछ भी महसूस न हो।


“सपनों के नाम पर अब बस एक ख़ाली कमरा है”

इस कमरे में न दरवाज़ा है, न खिड़की।
न रौशनी है, न हवा।
बस एक भारीपन है — स्थिर, अचल, गहरा।

हर बार सोचता हूँ — शायद कल कुछ बदले।
फिर याद आता है — कल भी तो आज जैसा ही था।


“अब इंतज़ार भी नहीं रहा किसी बदलाव का”

कभी लगता था — कोई आएगा, समझेगा, सुनेगा।
अब वह उम्मीद भी ख़त्म हो चुकी है।
कभी लगता था — वक्त सब ठीक कर देगा।
अब लगता है — वक्त बस घाव को पुराना कर देता है, भरता कुछ नहीं।


“मैं ठीक नहीं हूँ, और शायद अब कभी हो भी नहीं पाऊँगा”

यह स्वीकारना कठिन था।
लेकिन यह सच्चाई है।
अब मैं उम्मीद नहीं करता।
अब मैं नहीं सोचता कि मुझे 'ठीक' होना है।

अब मैं सिर्फ़ जी रहा हूँ —
जैसे कोई बुझा हुआ दीया, जो हवा के झोंकों से डरता भी नहीं, क्योंकि उसे बुझने की परवाह नहीं।


न कोई अंत, न कोई राहत — बस एक अंतहीन खालीपन

मैं फिर से यही कहूँगा कि मेरा लिखना कोई प्रेरणा नहीं देता।
कोई रास्ता नहीं दिखाता।
यह सिर्फ़ एक मन की चीख है, जो शब्दों में ढल गई है।

अगर आपने खुद को इसमें पाया — तो शायद आप अकेले नहीं हो।
लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि कुछ बदल जाएगा।

क्योंकि 

"जब अंधेरा भीतर घर कर लेता है, तब बाहर का सूरज भी सिर्फ़ एक झूठा उजाला लगता है — जो जलता है, लेकिन कुछ रोशन नहीं करता।"


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