भारत, जहाँ संविधान ने सभी को बराबरी का हक़ दिया, वहाँ आज भी असल ज़िंदगी की ज़मीन पर बराबरी सिर्फ किताबों में ही बची है। एक नई रिपोर्ट ने इस सच्चाई को नंगा कर दिया है — भारत की कुल संपत्ति का सबसे बड़ा हिस्सा आज भी उन हाथों में है जो सदियों से वर्चस्व में हैं। हम बात कर रहे हैं — सवर्ण हिंदुओं की, जिनके पास देश की 41% दौलत है, जबकि देश की आधी से ज़्यादा जनसंख्या, जो पिछड़े वर्ग, दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदायों से आती है, उनके हिस्से में सिर्फ़ टुकड़े हैं।
यह अध्ययन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज़ (IIDS) और जर्मन संस्था बॉच फाउंडेशन द्वारा करवाया गया है, जिसने wealth distribution यानी संपत्ति के वितरण का जातिगत विश्लेषण किया है। और नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं, बल्कि दुखद रूप से उम्मीद के मुताबिक हैं।
जाति का चेहरा पूंजी में भी क्यों दिखता है?
इतिहास गवाह है कि उच्च जातियों को सदियों से ज़मीन, शिक्षा और संसाधनों पर आधिकार रहा है। आजादी के बाद कानून बदले, आरक्षण आया, लेकिन सामाजिक ढांचा नहीं बदला। इस रिपोर्ट ने फिर से बताया है कि SC/ST/OBC और मुसलमानों को आज भी आर्थिक सीढ़ी पर निचले पायदान पर ही रखा गया है।
जब ब्राह्मण, राजपूत, बनिया जैसे उच्च वर्ग औसतन ₹1,47,000 की संपत्ति रखते हैं, वहीं मुस्लिम परिवारों के पास महज़ ₹55,000, OBC के पास ₹81,000, SC के पास ₹76,000 और ST के पास मात्र ₹61,000 की औसत दौलत है।
मूल सवाल यह है — ऐसा क्यों है?
यह सिर्फ आर्थिक नीति की बात नहीं है, यह सामाजिक ढांचे की बात है। जब सदियों तक किसी को ज़मीन रखने नहीं दी गई, शिक्षा से वंचित रखा गया, व्यवसाय में हिस्सा नहीं लेने दिया गया — तो उसके वंशज आज कैसे समृद्ध होंगे?
हमारे गांवों में आज भी जो खेतों के मालिक हैं, वे आमतौर पर ऊँची जातियों से आते हैं। और जो खेत में मज़दूरी करते हैं, वे या तो दलित हैं या आदिवासी। यह सामंती ढांचा आज भी नए कपड़ों में जीवित है — अब बस यह सूट-बूट में आ गया है, कंपनियों और फाइनेंशियल ग्राफ्स में।
मुसलमानों की स्थिति भी बेहद चिंताजनक
भारत में सबसे कम औसत संपत्ति मुसलमानों के पास है। यह उस समुदाय के लिए डबल मार की तरह है — एक तरफ़ धार्मिक भेदभाव और दूसरी तरफ़ आर्थिक बहिष्कार।
आरक्षण से जलने वालों से एक सवाल
जब कोई कहता है कि “आरक्षण ने मेरिट मार दी”, तो वो शायद इस रिपोर्ट को नहीं पढ़ता। क्या 41% दौलत पर कब्जा किए हुए लोग सिर्फ मेरिट से वहाँ पहुँचे हैं? क्या SC/ST/OBC और मुस्लिम बच्चे मेहनत नहीं करते? या उनके पास ‘मिरर ऑफ मेरिट’ देखने का संसाधन ही नहीं?
अब वक़्त है — सिर्फ आंकड़े गिनने का नहीं, बदलाव माँगने का
यह रिपोर्ट हमें चौंकाने नहीं, जगाने आई है। ये बताने आई है कि आर्थिक समानता का सपना अभी भी अधूरा है, और जब तक जातिगत असमानता आर्थिक क्षेत्र में मौजूद रहेगी, तब तक भारत असली लोकतंत्र नहीं बन सकता।
यह लड़ाई सिर्फ नीतियों की नहीं, नीयत की है। जब तक समाज के सबसे निचले तबके को बराबरी से ऊपर उठने का मंच नहीं मिलेगा, तब तक ऊँचाई सिर्फ एक तबके की रहेगी — और देश अधूरा।