सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥


श्लोक
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥"

(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 18, श्लोक 66)


श्लोक का भावार्थ:

हे अर्जुन! तू सभी धर्मों (कर्तव्यों, कर्ता-भाव, नियमों, क्रियाओं) को त्याग कर केवल मेरी (परमात्मा की) शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। तू शोक मत कर।


सरल शब्दों में अर्थ:

श्रीकृष्ण यहाँ किसी कर्म या धर्म के विरोध में नहीं बोल रहे, बल्कि वे उस ‘कर्ताभाव’ को त्यागने को कह रहे हैं जो मनुष्य को अहंकार और उलझनों में डाल देता है। ‘शरणागति’ यानी आत्मसमर्पण का यह मार्ग सर्वोच्च और अंतिम है — जहाँ व्यक्ति सब कुछ भगवान को समर्पित कर देता है।


विस्तृत व्याख्या:

भगवद्गीता के अंतिम अध्याय का यह श्लोक न केवल संपूर्ण ग्रंथ का सार है, बल्कि समस्त धर्मशास्त्रों की अंतिम निष्पत्ति भी है।
श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म, वैराग्य, सन्यास, आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष जैसे गूढ़ विषयों पर विस्तृत रूप से उपदेश दिया। यह उपदेश किसी साधारण व्यक्ति को नहीं, बल्कि अर्जुन जैसे महान योद्धा को दिया गया था — जिसने जीवन में असंख्य युद्ध लड़े, गुरुजनों की सेवा की, और धर्म की रक्षा का प्रण लिया।

किन्तु जब वास्तविक निर्णय का क्षण आया — जब सामने अपने ही बंधु-बांधव, गुरु और संबंधी युद्धभूमि में खड़े थे — तब अर्जुन का सारा ज्ञान, बुद्धि और विवेक डगमगाने लगा। उसकी आत्मा दुविधा और करुणा से भर गई। यही मनुष्य का स्वभाव है — हम तब तक विचारशील रहते हैं जब तक जीवन सहज चलता है। लेकिन जैसे ही परिस्थितियाँ हमें झकझोरती हैं, हमारी सारी विद्या, नैतिकता और निर्णय क्षमता डगमगाने लगती है।


तब श्रीकृष्ण ने क्यों कहा "सब छोड़ मेरी शरण में आ जा"?

जब कोई व्यक्ति ज्ञान, कर्म, योग जैसे मार्गों पर चलता है, तो उसमें एक ‘मैं कर रहा हूँ’ का भाव बना रहता है। यह 'कर्ताभाव' ही उस मार्ग को कठिन बनाता है।
अर्जुन भी इसी कर्ताभाव में उलझा हुआ था — वह सोच रहा था कि “मैं युद्ध करूँ या न करूँ?”, “मुझे यह करना चाहिए या नहीं?”, “क्या यह पाप होगा?”। इन सभी प्रश्नों के मूल में ‘मैं’ का अभिमान था।

श्रीकृष्ण ने जब देखा कि अर्जुन अब भी इस ‘मैं’ से बाहर नहीं निकल पा रहा, तब उन्होंने अपना अंतिम और सर्वोच्च मार्ग सुझाया — ‘शरणागति’
यह वह अवस्था होती है जब व्यक्ति अपने अस्तित्व को ईश्वर में पूरी तरह समर्पित कर देता है — न कोई भय रहता है, न कोई संकोच, न ही परिणाम की चिंता। केवल विश्वास, केवल समर्पण।


शरणागति क्या है?

शरणागति का अर्थ केवल ‘भगवान से प्रार्थना करना’ नहीं है। यह वह मानसिक, आत्मिक और भावनात्मक स्थिति है जहाँ व्यक्ति यह मान लेता है कि —

"अब मेरी शक्ति समाप्त है, अब केवल तू ही मेरा मार्गदर्शक है।"

यह कोई पलायनवाद नहीं है। यह उस गहराई से उपजा विश्वास है कि ‘मैं नहीं जानता कि मेरे लिए क्या श्रेष्ठ है, लेकिन ईश्वर जानता है।’
यह पूर्ण समर्पण है — जैसे बच्चा अंधेरे में भी अपनी माँ की उँगली पकड़े रहता है, ठीक वैसे ही एक भक्त भगवान की शरण को पकड़ लेता है।


पानी में डूबने वाली उपमा – क्यों महत्त्वपूर्ण है?

यह उपमा अत्यंत सुंदर है। जब व्यक्ति पानी में गिरता है और तैरना नहीं आता, तो वह अधिक प्रयास करता है — हाथ-पाँव मारता है — और अंततः डूब जाता है।
लेकिन यदि वह अपने प्रयास रोक दे, तो वह सतह पर तैर सकता है।
यही बात जीवन पर लागू होती है। जब हम जीवन में हर दिशा में प्रयास करते-करते थक जाते हैं, तो हमारे प्रयास ही हमें डुबोने लगते हैं।
उस समय यदि हम शांति से ईश्वर की इच्छा पर विश्वास कर लें, तो हम जीवन की कठिनाइयों में डूबते नहीं, बल्कि तैरने लगते हैं।


क्या अर्जुन को ज्ञान प्राप्त हुआ?

हाँ, अंततः जब श्रीकृष्ण ने यह अंतिम श्लोक कहा — “सर्वधर्मान्परित्यज्य…” — तब अर्जुन को बोध हुआ कि सारे द्वंद्वों का समाधान ‘शरणागति’ है। तभी तो उसने कहा —

"नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥"

(गीता 18/73)

"हे अच्युत! मेरी मोह का नाश हो गया है, स्मृति लौट आई है, अब मैं संदेह रहित हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।"


जीवन में शरणागति क्यों आवश्यक है?

आज का मनुष्य भी अर्जुन की ही तरह असमंजस में जी रहा है — निर्णय लेने में डरता है, भविष्य की चिंता करता है, रिश्तों की उलझनों में फंसा रहता है, और हर काम का परिणाम अपने ऊपर ले लेता है।
इन सबका समाधान — ‘शरणागति’

जब हम ये मान लेते हैं कि —

  • मैं सब कुछ नहीं जानता,

  • मेरे प्रयास सीमित हैं,

  • कोई एक सर्वोच्च सत्ता है जो सब देख रही है,

तब हमारे भीतर से चिंता, भ्रम और दुख स्वतः मिटने लगते हैं।


निष्कर्ष:

भगवद्गीता का यह अंतिम उपदेश — ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ — गीता की सर्वोच्च अवस्था है। जब व्यक्ति कर्म, ज्ञान, भक्ति सब मार्गों से थक जाए, तब शरणागति ही उसकी आत्मा को परमात्मा से जोड़ती है।
यह मार्ग कठिन नहीं, बल्कि सबसे सरल है — केवल विश्वास चाहिए, समर्पण चाहिए, और यह आस्था चाहिए कि ‘अब सब कुछ तू संभाल ले प्रभु।’


संदर्भ (References):

  • श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय 18, श्लोक 66

  • श्रीमद्भगवद्गीता: अध्याय 18, श्लोक 73

  • Essays on the Gita — श्री अरविंद

  • Bhagavad Gita As It Is — श्रील प्रभुपाद (ISKCON)

  • रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएँ — शरणागति पर व्याख्यान

  • Swami Sivananda's commentary on the Bhagavad Gita

  • उपनिषदों में शरणागति का उल्लेख – श्वेताश्वतर उपनिषद 6/23

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