"दु:खेष्वनुद्विग्न्मना: सुखेषु विगतस्पृह: । वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।"


श्लोक
"दु:खेष्वनुद्विग्न्मना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।"
(भगवद गीता: अध्याय 2, श्लोक 56)


भावार्थ (संक्षिप्त रूप में):

जिस मनुष्य के मन में दुख की अवस्था में कोई उद्वेग नहीं होता, जो सुख की अवस्था में आकांक्षा और आसक्ति से रहित रहता है, और जिसके भीतर राग (मोह), भय (डर) और क्रोध नहीं होते — ऐसा व्यक्ति स्थिरबुद्धि वाला मुनि कहलाता है।


सरल शब्दों में व्याख्या:

सुख और दुख जीवन के दो अपरिहार्य पहलू हैं। कोई भी व्यक्ति इनसे अछूता नहीं है। लेकिन मन की वास्तविक परिपक्वता तब मानी जाती है जब कोई व्यक्ति न तो दुख के समय व्याकुल होता है, न ही सुख के समय अत्यधिक लिप्त और लोभित। जो व्यक्ति दुख में शांत और सुख में संयमी रहता है, वही वास्तविक ज्ञानी और संतुलित बुद्धि वाला कहलाता है।


विस्तृत विश्लेषण और आधुनिक सन्दर्भ में समझाइए:

हम सभी जानते हैं कि जीवन में सुख और दुःख दोनों ही समय आते हैं। ये दो चेहरे हैं एक ही सिक्के के। किंतु अधिकतर मनुष्य इन दोनों परिस्थितियों को एक समान नहीं ले पाते। जब जीवन में सुख आता है तो हम आनंदित होते हैं, हमारी इच्छाएँ और अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं। लेकिन जैसे ही दुख दस्तक देता है, हम मानसिक रूप से टूट जाते हैं, हताशा और निराशा से घिर जाते हैं।

यहाँ गीता के इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने जिस 'स्थितप्रज्ञ' व्यक्ति का वर्णन किया है, वह ऐसा व्यक्ति है जो इन दोनों अवस्थाओं में समान रूप से स्थिर रहता है। उसके मन में न तो किसी सुख के लिए लोभ होता है, न ही किसी दुःख के समय आत्मविलाप।
यह एक बहुत ही ऊँची आध्यात्मिक स्थिति है — जहाँ व्यक्ति अपने भीतर के राग (attachment), भय (fear) और क्रोध (anger) पर नियंत्रण पा चुका होता है।

राग (Asakti):

राग उस मोह या आकर्षण को कहा गया है जो हमें किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति से बाँधता है। जब हमारी इच्छाएँ पूरी होती हैं तो हम प्रसन्न होते हैं, लेकिन जब वे टूटती हैं तो हम दुखी होते हैं। राग से उत्पन्न अपेक्षा ही सबसे बड़ा दुख बनती है।

भय (Fear):

भविष्य की अनिश्चितता या किसी चीज़ को खोने का डर — यह भय मनुष्य को अस्थिर करता है। भय से ग्रस्त व्यक्ति कभी भी संतुलन नहीं बना सकता।

क्रोध (Anger):

जब हमारी इच्छाओं या अपेक्षाओं में बाधा आती है तो हम क्रोधित होते हैं। यह क्रोध बुद्धि को ढँक देता है और विवेक नष्ट कर देता है।

इन तीनों से मुक्त होना ही ‘वैराग्य’ की दिशा में पहला कदम है।


आज के समाज में यह क्यों आवश्यक है?

वर्तमान समाज में जहाँ हर कोई तात्कालिक सुख की खोज में भाग रहा है — मोबाइल, सोशल मीडिया, प्रतिस्पर्धा, धन और भौतिकता की चकाचौंध — वहाँ व्यक्ति आंतरिक शांति और स्थिरता खो चुका है।
हर छोटी सी असफलता में लोग टूट जाते हैं, आत्महत्या तक कर लेते हैं। यह मानसिक दुर्बलता का संकेत है। ऐसे में गीता का यह श्लोक न केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन देता है, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक सन्तुलन का सूत्र भी है।

जो व्यक्ति परिस्थितियों के अनुसार अपने मन को संयमित रखना सीख लेता है, वही मानसिक रूप से परिपक्व और स्थिर बुद्धि वाला बनता है। ऐसे व्यक्ति को कोई भी बाहरी परिस्थिति विचलित नहीं कर सकती।


व्यावहारिक उपाय – इस स्थिति को पाने के लिए:

  • ध्यान (Meditation) – अपने मन की हलचलों को रोज़ थोड़ी देर शांत बैठकर देखें।
  • स्व-अवलोकन (Self-Reflection) – रात्रि में दिनभर के व्यवहार की समीक्षा करें – कब राग, भय और क्रोध हावी हुए?
  • संतुलन की साधना – जीत हो या हार, प्रशंसा हो या आलोचना – स्वयं को तटस्थ रखने का अभ्यास करें।
  • अभ्यास और वैराग्य – ‘अभ्यासेन तु वैराग्येण’ (गीता 6/35) के अनुसार, निरंतर अभ्यास से यह स्थिरता प्राप्त की जा सकती है।

निष्कर्ष:

स्थिरबुद्धि व्यक्ति वह है जो सांसारिक उतार-चढ़ाव से प्रभावित नहीं होता। दुख उसे विचलित नहीं करते और सुख उसे बाँध नहीं पाते। राग, भय और क्रोध — ये तीन विकार जब मन से निकल जाते हैं, तब ही आत्मा की सच्ची स्वतंत्रता और शांति प्राप्त होती है। यही गीता का संदेश है — भीतर स्थिर हो जाओ, बाहर की दुनिया बदलती रहेगी।


संदर्भ (References):

  • भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 56

  • श्रीमद्भागवत महापुराण – द्वारका प्रसंग

  • Patanjali Yoga Sutra (1.12): "अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्निरोधः"

  • स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएँ (Complete Works, Vol 1)

  • श्री अरविंद – Essays on the Gita

  • Dr. David Frawley – Inner Meaning of the Bhagavad Gita

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