हर साल 14 फरवरी को दुनियाभर में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है। भारत में भी यह दिन युवाओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हुआ है, लेकिन क्या कभी हमने यह जानने की कोशिश की है कि वैलेंटाइन डे की असल ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या है, और क्या यह भारत जैसे सांस्कृतिक राष्ट्र के लिए उपयुक्त है?
वैलेंटाइन डे का ऐतिहासिक आधार
वैलेंटाइन डे की शुरुआत का संबंध तीसरी सदी के रोम साम्राज्य से है। उस समय के शासक क्लॉडियस II का मानना था कि अविवाहित पुरुष बेहतर सैनिक बनते हैं, इसलिए उसने शादी पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन सेंट वैलेंटाइन नामक एक ईसाई पादरी ने इस आदेश का विरोध करते हुए गुप्त रूप से प्रेमी युगलों की शादी करानी शुरू कर दी।
जब यह बात सम्राट को पता चली, तो उन्होंने सेंट वैलेंटाइन को गिरफ्तार करवा कर 14 फरवरी 269 ईस्वी को मृत्युदंड दे दिया। बाद में उन्हें ईसाई धर्म के "शहीद" और "प्रेम के संरक्षक संत" के रूप में मान्यता दी गई। चौदहवीं सदी में ज्योफ्री चौसर और अन्य कवियों ने सेंट वैलेंटाइन के बलिदान को प्रेम से जोड़कर प्रस्तुत किया, जिससे यह दिन रोमांटिक प्रेम का प्रतीक बन गया।
भारत में इसका प्रभाव और चिंतन
वैलेंटाइन डे पश्चिमी मूल की परंपरा है, जिसे भारत में 1990 के दशक में निजी टीवी चैनलों, वैश्वीकरण और उपभोक्तावादी बाज़ार नीति के कारण लोकप्रियता मिली। शहरी युवा वर्ग के बीच यह एक फैशन और व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के उत्सव के रूप में उभर आया।
लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब इस दिन को अंधानुकरण की तरह मनाया जाता है — बिना इसके ऐतिहासिक संदर्भ और मूल्य को समझे। जिस वैलेंटाइन ने प्रेम को एक पवित्र बंधन माना और अस्थायी संबंधों के खिलाफ खड़ा हुआ, आज उसी के नाम पर क्षणिक, दिखावटी प्रेम और बाज़ारवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है।
भारतीय परंपरा बनाम पश्चिमी प्रभाव
भारत की अपनी संस्कृति में भी प्रेम, करुणा और रिश्तों की गहरी समझ रही है। लेकिन दुर्भाग्यवश, ऐसे समृद्ध उदाहरणों को हम भुला बैठे हैं।
वहीं, जब बात आती है 23 मार्च (भगत सिंह शहादत दिवस), 23 जनवरी (नेताजी सुभाष जयंती), 14 अप्रैल (अम्बेडकर जयंती) या 15 अगस्त, 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय और ऐतिहासिक दिवसों की—तो उनमें अपेक्षित उत्साह नहीं दिखता। यह स्थिति एक सांस्कृतिक विस्मरण का संकेत देती है।
क्या केवल प्रेम का दिन मनाना गलत है?
बिलकुल नहीं। प्रेम एक सार्वभौमिक भावना है, और उसका सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन यह आवश्यक है कि हम उसे सार्थक, जिम्मेदार और सच्चे मूल्य के साथ अपनाएं। सेंट वैलेंटाइन ने स्थायीत्व, समर्पण, और संवेदनशीलता को महत्व दिया था—ना कि आज के प्रदर्शनी प्रेम को।
निष्कर्ष
भारत को पश्चिम से सीखने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन वह सीख चयनात्मक और विवेकपूर्ण होनी चाहिए। किसी एक दिन विशेष को मनाना बुरा नहीं, पर अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान, इतिहास और महापुरुषों के योगदान को भूल जाना निश्चित रूप से चिंता का विषय है।
यदि प्रेम के नाम पर कोई दिन मनाना ही है, तो क्यों न हम उन महापुरुषों को भी याद करें जिनका समर्पण, बलिदान और प्रेम भारत के लिए था?
देश से प्रेम भी प्रेम का एक रूप है—और शायद सबसे उत्कृष्ट।
– श्री शम्भू
(लेखक: सामाजिक चिंतक एवं सांस्कृतिक विश्लेषक)